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जैन धर्म-दर्शन का साहित्य
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प्रयोग किया वह न्यायशास्त्र के क्षेत्र में एक बहुत बड़ी क्रान्ति थी । न्याय के शुष्क और नीरस विषय में एक नये रस का संचार कर देना और उसे आकर्षण की वस्तु बना देना सामान्य बात नहीं थी । गंगेश ने जिस नूतन और सरस शैली को जन्म दिया वह शैली उत्तरोत्तर बढ़ती ही गई । चिन्तामणि के टीकाकारों ने इस नवीन न्यायग्रन्थ पर उतनी ही महत्त्वपूर्ण टीकाएँ लिखीं । न्यायशास्त्र प्राचीन और नवीन न्यायों में विभक्त हो गया । इस युग का इतना अधिक प्रभाव पड़ा कि सभी दार्शनिक अपने - अपने दर्शन को नवीन न्याय की भूमिका पर परिष्कृत करने लगे । इस शैली का अनुसरण करके जितने भी ग्रन्थ बने उनका दर्शन के इतिहास में बहुत महत्त्व है । प्रत्येक दर्शन के लिए यह आवश्यक हो गया कि यदि वह जीवित रहना चाहता है तो नवीन न्याय की शैली में अपने पक्ष की स्थापना करे । इतना होते हुए भी जैनदर्शन के आचार्यों का ध्यान इस ओर बहुत शीघ्र नहीं गया । सत्रहवीं शताब्दी के अन्त तक जैन-दर्शन प्राचीन परम्परा और शैली के चक्कर में ही पड़ा रहा। जहाँ अन्य दर्शन नवीन सजधज के साथ रंगमंच पर आ चुके थे, जैन दर्शन पर्दे के पीछे ही अंगड़ाइयाँ ले रहा था । यशोविजय ने अठारहवीं शताब्दी के प्रारम्भ में जैन दर्शन को नया प्रकाश दिया ।
वि० सं० १६६९ में अहमदाबाद के जैनसंघ ने आचार्य नयविजय और यशोविजय को काशी भेजा । आचार्य नयविजय यशोविजय के गुरु थे इसलिए दोनों साथ आये । विद्या का पवित्र धाम काशी उस समय दर्शन के क्षेत्र में प्रसिद्ध था । यहाँ आकर यशोविजय ने भारतीय दर्शन - शास्त्र का गम्भीर अध्ययन किमा । साथ-ही-साथ अन्य शास्त्रों का भी पाण्डित्य प्राप्त किया। इनके पाण्डित्य एवं प्रतिभा से प्रभावित हो इन्हें न्याय
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