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________________ शानमीमांसा २८७ स्थिति में सर्वज्ञ के ज्ञान में सम्पूर्ण अलोकाकाश का प्रतिभासित होना तर्कसंगत प्रतीत नहीं होता। अथवा अलोकाकाश की अनन्तता की समाप्ति का प्रसंग उपस्थित होता है। तब यह कैसे कहा जा सकता है कि सर्वज्ञ सब द्रव्यों का साक्षात ज्ञान करता है ? अलोक में स्थित अनन्त आकाश के ज्ञान के अभाव में उसका ज्ञान पूर्ण कैसे हो सकता है ? हाँ, सब द्रव्यों के स्वरूपज्ञान की दृष्टि से उसका ज्ञान साक्षात् एवं पूर्ण हो सकता है। पर्याय अर्थात् द्रव्य की विशेष अथवा विविध अवस्थाएं। पर्यायों का कोई अन्त नहीं है अर्थात् पर्याय अनन्त हैं। किसी भी द्रव्य के पर्यायों को काल की दृष्टि से तीन भागों में विभाजित कर सकते हैं : वर्तमानकालीन, भूतकालीन और भविष्यत्कालीन । जहाँ तक वर्तमानकालीन पर्यायों का प्रश्न है, वें काल की दृष्टि से सीमित हैं अत: उनका सर्वज्ञ के ज्ञान में प्रतिभास संभव हो सकता है । भूतकाल और भविष्यकाल असीमित हैं अर्थात् भतकाल अनादि है तथा भविष्यत्काल अनन्त है। ऐसी स्थिति में आदिरहित भतकालीन एवं अन्तरहित भविष्यत्कालीन समस्त पर्यायों का ज्ञान कैसे सम्भव हो सकता है ? यदि इस प्रकार का ज्ञान सम्भव माना जायगा तो अनादि की आदि और अनन्त का अन्त मानना पड़ेगा क्योंकि आदि और अन्त तक पहुंचे बिना समस्त पूर्ण नहीं हो सकेगा। अतः सर्वज्ञ द्रव्यों के सब पर्यायों का ज्ञान करने में कैसे समर्थ हो सकेगा, यह समझना कठिन है । इतना ही नहीं, भूतकालीन पर्याय, जोकि नष्ट हो चुके हैं तथा भविष्यत्कालीन पर्याय, जोकि उत्पन्न ही नहीं हुए हैं, उन सबका प्रतिभास सर्वज्ञ के ज्ञान में कैसे हो सकेगा? हम असर्वज्ञों की तरह सर्वज्ञ में स्मृति, कल्पना, अनुमान आदि को विद्यमानता नहीं होती है Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002139
Book TitleJain Dharma Darshan Ek Samikshatmak Parichay
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMohanlal Mehta
PublisherMutha Chhaganlal Memorial Foundation Bangalore
Publication Year1999
Total Pages658
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size21 MB
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