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________________ २१२ जैन धर्म-दर्शन अभाव में गति नहीं हो सकती अर्थात् केवल स्थिति ही रह जायगी, क्या वैसे ही यह भी कहा जा सकता है कि अधर्म के अभाव में स्थिति नहीं हो सकती अर्थात् केवल गति ही रह जायगी ? जैन दर्शन के अनुसार ऐसा ही है । अधर्म द्रव्य के बिना किसी प्रकार की सन्तुलित स्थिति अथवा सन्तुलन' संभव नहीं है । जो तत्त्व पदार्थों के सन्तुलन का माध्यम है अर्थात् जीव और पुद्गल की सन्तुलित स्थिति में सहायक होता है वह अधर्म हूं। कुछ आधुनिक विद्वान् अधर्म की तुलना अथवा समानता गुरुत्वाकर्षण एवं 'फील्ड' के साथ करते हैं। मुझे ऐसा प्रतीत होता है कि अधर्म इन दोनों से भिन्न एक स्वतन्त्र तत्त्व है जिसकी आवश्यकता केवल जैन दार्शनिकों ने ही महसूस की है। ___ यदि धर्म की तरह अधर्म को भी सर्वव्यापक माना जायगा तो दोनों एक-दूसरे से मिल जायंगे । फिर उनमें क्या भेद रह जायगा? एक से अधिक पदार्थों अथवा तत्त्वों के सर्वव्यापक होने पर भी उनमें अपने-अपने कार्य की दृष्टि से उसी प्रकार भिन्नता रहती है जिस प्रकार कि अनेक दीपकों अथवा बत्तियों के प्रकाशों के एक-दूसरे से मिल जाने पर भी उनमें भिन्नता रहती है तथा वे यथावसर अपना-अपना कार्य करते हैं। परस्पर मिश्रित होते हुए भी उनमें से किसी का अस्तित्व समाप्त नहीं हो जाता। चूंकि धर्म और अधर्म सम्पूर्ण लोक में व्याप्त हैं अतः उन्हें एक स्थान से दूसरे स्थान में जाने की कोई आवश्यकता नहीं है । वे नित्य अवस्थित हैं। आकाश : जो द्रव्य जीव, पुद्गल, धर्म, अधर्म और काल को स्थान देता 1.. Equilibrium. 2. Gravity. 3. Field. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002139
Book TitleJain Dharma Darshan Ek Samikshatmak Parichay
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMohanlal Mehta
PublisherMutha Chhaganlal Memorial Foundation Bangalore
Publication Year1999
Total Pages658
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size21 MB
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