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सापेक्षवाद
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लोक हमेशा किसी-न-किसी रूप में रहता है, इसलिए वह नित्य है-ध्रुव है-शाश्वत है-अपरिवर्तनशील है। लोक हमेशा एकरूप नहीं रहता। कभी उसमें सुख की मात्रा बढ़ जाती है तो कभी दुःख की मात्रा अधिक हो जाती है । कालभेद से लोक में विविधरूपता आती रहती है। अतः लोक अनित्य है, अशाश्वत है, अस्थिर है, परिवर्तनशील है, अध्रुव है, क्षणिक है। सान्तता और अनन्तता :
लोक की सान्तता और अनन्तता के प्रश्न को लेकर भी महावीर ने इसी प्रकार का समाधान किया। .
लोक चार प्रकार से जाना जाता है-द्रव्य से, क्षेत्र से, काल से और भाव से। द्रव्य की अपेक्षा से लोक एक है और सान्त है। क्षेत्र की अपेक्षा से लोक असंख्यात योजन कोटाकोटि विस्तार और असंख्यात योजन कोटाकोटि परिक्षेप प्रमाण कहा गया है । इसलिए क्षेत्र की अपेक्षा से लोक सान्त है। काल की अपेक्षा से कोई काल ऐसा नहीं जब लोक न हो, अतःलोक ध्रुव है, नित्य है, शाश्वत है, अक्षय है, अव्यय है, अवस्थित है। उसका अन्त नहीं है। भाव की अपेक्षा से लोक के अनन्त वर्णपर्याय, गन्धपर्याय, रसपर्याय, स्पर्शपर्याय हैं। अनन्त संस्थानपर्याय हैं, अनन्त गुरुलघुपर्याय हैं, अनन्त अगुरुलघुपर्याय हैं। उसका कोई अन्त नहीं। इसलिए लोक द्रव्यदृष्टि से सान्त है, क्षेत्र दृष्टि से सान्त है, कालदृष्टि से अनन्त है, भावदृष्टि से अनन्त हैं।' लोक की सान्तता और अनन्तता का चार दृष्टियों से
१. एवं खलु मए खंदया ! चउविहे लोए पन्नते, तंजहा-दव्या
खेत्तो कालो भावओ। दवओ णं एगे लोए सअंते । खेत्तओ
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