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जैन धर्म-दर्शन का साहित्य
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है । यह अभेददृष्टि भी एकांगी है। सिद्धसेन ने कारण और कार्य का यह विरोध द्रव्याथिक और पर्यायार्थिक दृष्टि के आधार पर दूर किया है । द्रव्यार्थिक दृष्टि से कारण और कार्य में कोई भेद नहीं । पर्यायार्थिक दृष्टि से दोनों में भेद है । अनेकान्तवाद - मार्ग यही है कि दोनों को सत्य माना जाय । वस्तुतः न कार्य और कारण में एकान्त भेद है और न एकान्त अभेद ही । यही समन्वय का मार्ग हैं ।
तत्त्वचिन्तन के सम्यक्पथ की व्याख्या करते हुए सिद्धसेन ने आठ बातों पर जोर दिया। इनमें से चार बातें तो वे ही हैं जिन पर स्वयं महावीर ने जोर दिया था । ये चार बाते हैं- द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव । इनके अतिरिक्त पर्याप्त, देश, संयोग और भेद पर भी उन्होंने जोर दिया। वैसे द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव में शेष चारों का भी समावेश हो जाता है किन्तु दृष्टि का और साथ-ही-साथ पदार्थ का कुछ और अधिक अच्छी तरह विश्लेषण करने के लिए उन्होंने आठ बातों का विवेचन किया ।
सिद्धसेन पक्के तर्कवादी थे, इसमें कोई संशय नहीं । इतना होते हुए भी वे यह जानते थे कि तर्क का क्षेत्र क्या है | दूसरे शब्दों में, वे तर्क की मर्यादा समझते थे । तर्क को सर्वत्र अप्रतिहतगति समझने की भूल उन्होंने नहीं की। उन्होंने अनुभव को दो क्षेत्रों में बाँट दिया । एक क्षेत्र में तर्क का साम्राज्य था तो दूसरे क्षेत्र में श्रद्धा को पूर्ण स्वतंत्र बना दिया । जो बातें शुद्ध आगमिक थीं, जैसे भव्य और अभव्य का विभाग, जीवों की संख्या का प्रश्न आदि, उन पर उन्होंने तर्क का प्रयोग करना उचित न समझा । उन्हें यथावत् ग्रहण कर लिया । जो बातें तर्कबल से सिद्ध या असिद्ध की जा
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