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________________ जैन धर्म-दर्शन भी उसी प्रकार रूपादि गुणों से युक्त होगा, इसलिए उसका फिर विभाग हो सकेगा। इस प्रकार अनवस्था का सामना करना पड़ेगा। इसलिए यह कहना ठीक नहीं कि पुद्गल का सबसे छोटा विभाग हो सकता है । जेनो की इस धारणा का खण्डन करते हुए एरिस्टोटल ने उत्तर दिया कि ज़ेनो की यह धारणा कि किसी चीज का अन्तिम विभाग नहीं हो सकता, भ्रान्त है । यह ठीक है कि कल्पना से किसी वस्तु का विभाग किया जाय तो उसका अन्त नहीं आ सकता किन्तु वास्तव में ऐसा नहीं हो सकता। जब हम किसी वस्तु का वास्तविक विभाग करते हैं तब वह विभाग कहीं-न-कहीं जाकर अवश्य रुक जाता है। उससे आगे उसका विभाग नहीं हो सकता। काल्पनिक विभाग के विषय में यह कहा जा सकता है कि उसका कोई अन्त नहीं आ सकता। यही समाधान जैन दर्शनादिसम्मत परमाणु के लिए प्रयुक्त किया जा सकता है। . स्पर्शादि गुणों का एक अणु में किस मात्रा में अस्तित्व रहता है ? इसका उत्तर देते हुए कहा गया है कि अणु में एक रस, एक वर्ण, एक गन्ध और दो स्पर्श होते हैं। अणु स्वयं शब्द नहीं है किन्तु शब्द का कारण अवश्य है। जो स्कन्ध से भिन्न है किन्तु स्कन्ध को बनानेवाला है।' इस कथन का तात्पर्य यह है कि एक अणु में उपर्युक्त स्पर्शादि गुणों के बीसों प्रकार नहीं रहते किन्तु स्पर्श के दो प्रकार जो परस्पर विरोधी न हों, रस का एक प्रकार, गन्ध का एक प्रकार, वर्ण का एक प्रकार-इस तरह पाँच प्रकार रहते हैं। एक निरंश परमाणु में इनसे अधिक प्रकार नहीं रह सकते । मृदु और कठिन, गुरु और लघु ये चारों स्पर्श अणु में नहीं होते क्योंकि ये चारों १. पंचास्तिकायसार, ८८. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002139
Book TitleJain Dharma Darshan Ek Samikshatmak Parichay
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMohanlal Mehta
PublisherMutha Chhaganlal Memorial Foundation Bangalore
Publication Year1999
Total Pages658
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size21 MB
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