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शानमीमांसा
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रात्रि और दिन-अन्धकार और आलोक दोनों में रूपज्ञान की उत्पत्ति का है। दूसरा उदाहरण बिल्कुल विपरीत है। केवल अंधकार में ही होने वाला रूपज्ञान 'आलोक के अभाव में रूपज्ञान नहीं हो सकता' इस सिद्धान्त का सर्वनाश करता है। इनके अतिरिक्त हमारे सामने ऐसे उदाहरण भी हैं जिनसे यह सिद्ध होता है कि आलोक के होने पर ही रूपज्ञान की उत्पत्ति होती है। साधारण मनुष्यों का रूपज्ञान इसी श्रेणी का है। तात्पर्य यह है कि ऐसा एकांत नियम नहीं है कि आलोक के होने पर ही रूपज्ञान उत्पन्न हो। कहीं पर आलोक के होने पर ही रूपज्ञान होता है, कहीं पर अन्धकार के होने पर ही रूपज्ञान होता है और कहीं पर आलोक और अंधकार दोनों प्रकार की अवस्थाओं में रूपज्ञान होता है। इसलिए यह कथन उचित नहीं कि आलोक ज्ञानोत्पत्ति का अनिवार्य कारण है । अर्थ के विषय में भी यही बात कही जा सकती है। मरीचिकाज्ञान बिना ही अर्थ के उत्पन्न होता है। स्वप्नज्ञान के समय हमारे सामने कोई पदार्थ नहीं रहता। इन ज्ञानों को मिथ्या कह कर नहीं टाला जा सकता क्योंकि ये मिथ्या होते हुए भी ज्ञान तो हैं ही। यहाँ प्रश्न सत्य और मिथ्या का नहीं है। प्रश्न है अर्थ के अभाव में ज्ञानोत्पत्ति का। ज्ञान कैसा भी हो किंतु यदि अर्थ के अभाव में उत्पन्न हो जाता है तो यह प्रतिज्ञा समाप्त हो जाती है कि अर्थ के होने पर ही ज्ञान उत्पन्न होता है । स्वप्नादिज्ञानों को थोड़ी देर के लिए छोड़ भी दें, तो भी यह सिद्धांत ठीक नहीं उतरता, क्योंकि भूत और भविष्य के प्रत्यक्ष की सिद्धि इस आधार पर नहीं की जा सकती। योगियों के ज्ञान का विषय भी यदि वर्तमान पदार्थ ही माना जाय तो त्रिकाल-विषयक ज्ञान की बात व्यर्थ हो जाती है। अतः अर्थ भी ज्ञानोत्पत्ति के प्रति अनिवार्य कारण नहीं है।
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