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________________ ५४२ जैन धर्म-दर्शन वृत्ति की अधीनता के कारण वह जाने - अजाने ऐसी गलत गलियाँ निकाल सकता है जिनसे व्रतभंग भी न हो और मैथुनेच्छा भी पूरी हो जाय । यही गलियाँ स्थूल मैथुन विरमण व्रत के अतिचार हैं । ये दोषरूप होने के कारण त्याज्य हैं । इनका अन्य व्रतों के अतिचारों की ही भाँति निम्नोक्त पाँच रूपों में प्रतिपादन किया गया है: इत्वरिक परिगृहीता- गमन, अपरिगृहीता - गमन, अनंगक्रीड़ा, परविवाहकरण और कामभोगतीव्राभिलाषा। जो स्त्रियाँ परदारकोटि में नहीं आतीं ऐसी स्त्रियों को धन आदि का लालच देकर कुछ समय तक अपनी बना लेना अर्थात् स्वदारकोटि में ले आना तथा उनके साथ कामभोग का सेवन करना इत्वरिक परिगृहीना-गमन कहलाता है । इत्वर अर्थात् अलकाल परिग्रहण अर्थात् स्वीकार, गमन अर्थात् कामभोग- सेवन । इत्वरिक परिगृहीता-गमन अर्थात् अल्पकाल के लिए स्वीकार की हुई स्त्री के साथ कामभोग का सेवन करना - कुछ समय के लिए रखी हुई किसी महिला के साथ मैथुनसेवन करना । जो स्त्री अपने लिए अपरिगृहीत अर्थात् अस्वीकृत है उसके साथ कामभोग का सेवन करना अपरिगृहीता-गमन है । इस प्रकार की स्त्रियों में निम्नोक्त नारियों का समावेश होता है : जिसके साथ सम्बन्ध निश्चित हो गया हो किन्तु विवाह न हुआ हो, जो अविवाहित कन्या के रूप में ही हो, जिसका पति मर गया हो, जो वेश्या का व्यवसाय करती हो, जो अपने पति द्वारा छोड़ दी गई हो अथवा जिसने अपने पति को छोड़ दिया हो, जिसका पति पागल हो गया हो, जो अपनी दासी अथवा नौकरानी के रूप में काम करती हो इत्यादि । इन सव प्रकार की स्त्रियों के साथ स्वदार संतोष, जिसका कि निषेधात्मक रूप परदारविवर्जन है, का पूरा अर्थ न समझने के Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002139
Book TitleJain Dharma Darshan Ek Samikshatmak Parichay
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMohanlal Mehta
PublisherMutha Chhaganlal Memorial Foundation Bangalore
Publication Year1999
Total Pages658
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size21 MB
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