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________________ ५४८ जैन धर्म-दर्शन .. सचित्त वस्तु का त्याग होने पर बिना अग्नि के पके आहार का सेवन करने पर अपक्वाहार दोष लगता है। अथवा हरे अर्थात् कच्चे शाक, फल आदि का त्याग होने पर बिना पके फल आदि का सेवन करने पर अपक्वाहार अतिचार लगता है। इसी प्रकार अर्धपक्व आहार का सेवन करने पर दुष्पक्वाहार दोष लगता है। जो वस्तु खाने में कम आए तथा फेंकने में अधिक जाए अर्थात् खाने के लिए ठीक तरह से तैयार न हुई हो ऐसी वस्तु का सेवन करने पर तुच्छौषधिभक्षण अतिचार लगता है । उपभोगपरिभोग-परिमाण व्रत के आराधक को इन अतिचारों से बचना चाहिए। अतिचार-सेवन का प्रसंग उपस्थित होने पर आलोचना एवं प्रतिक्रमणरूप पश्चात्ताप अर्थात् प्रायश्चित्त करना चाहिए। उपभोग एवं परिभोग की वस्तुओं की प्राप्ति के लिए किसीन-किसी प्रकार का कर्म अर्थात् व्यापार-व्यवसाय-उद्योग-धन्धा करना पड़ता है। जिस व्यवसाय में महारम्भ होता हो-स्थूल हिंसा होती हो-अधिक पाप होता हो वह व्यवसाय श्रावक के लिए निषिद्ध है। इस प्रकार के व्यवसायों को कर्मादान कहा गया है । उपासकदशांग में निम्नलिखित १५ कर्मादान - श्रावक के लिए वर्जित किये गये हैं : १. अंगारकर्म, २. वनकर्म, ३. शकटकर्म, ४. भाटककर्म, ५. स्फोटककर्म, ६. दंतवाणिज्य, ७. लाक्षावाणिज्य, ८. रसवाणिज्य, ६. केशवाणिज्य, १०. विषवाणिज्य, ११. यन्त्रपीडनकर्म, १२. निलांछनकर्म, १३. दावाग्निदानकर्म, १४. सरोह्रदतडागशोषणताकर्म, १५. असतीजनपोषणताकर्भ । अंगारकर्म अर्थात् अग्नि-सम्बन्धी व्यापार-जैसे कोयले बनाना, ईंटे पकाना आदि । वनकर्म अर्थात् वनस्पति-सम्बन्धी व्यापार-जसे वृक्ष काटना, घास काटना आदि । शकटकर्म अर्थात् Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002139
Book TitleJain Dharma Darshan Ek Samikshatmak Parichay
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMohanlal Mehta
PublisherMutha Chhaganlal Memorial Foundation Bangalore
Publication Year1999
Total Pages658
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size21 MB
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