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जैन धर्म-दर्शन क्रमशः होते हैं, केवली में युगपद् होते हैं ।'' इस प्रकार दिगम्बर परम्परा के सभी आचार्यों ने केवलदर्शन और केवलज्ञान की उत्पत्ति युगपद् मानी। जहाँ तक छद्मस्थ के दर्शन और ज्ञान का प्रश्न है, श्वेताम्बर परम्परा और दिगम्बर परम्परा दोनों एकमत हैं।
तीसरी परम्परा सिद्धसेन दिवाकर की है। वे कहते हैं कि मनःपर्यय तक तो ज्ञान और दर्शन का भेद सिद्ध कर सकते हैं, किन्तु केवलज्ञान और केवलदर्शन का भेद सिद्ध करना सम्भव नहीं। दर्शनावरण और ज्ञानावरण का युगपद् क्षय होता है। उस क्षय से होने वाले उपयोग में 'यह पहले होता है और यह बाद में होता है। इस प्रकार का भेद कैसे किया जा सकता है। जिस समय कैवल्य की प्राप्ति होती है उस समय सर्वप्रथम मोहनीय का क्षय होता है, तदनन्तर ज्ञानावरण, दर्शनावरण
और अन्तराय का युगपद् क्षय होता है । जब दर्शनावरण और ज्ञानावरण दोनों के क्षय में काल का भेद नहीं है तब यह कैसे कहा जा सकता है कि पहले केवलदर्शन होता है, फिर केवलज्ञान होता है। इस कठिनाई को दूर करने के लिए कोई यह माने कि दोनों का युगपद् सद्भाव है तो भी ठीक नहीं, क्योंकि एक साथ दो उपयोग नहीं हो सकते। इस कठिनाई को दूर करने का सबसे सरल एवं युक्तिसंगत मार्ग यही है कि केवली अवस्था में दर्शन और ज्ञान में भेद नहीं होता । दर्शन और ज्ञान १. सर्वार्थ सिद्धि, २.९. २. मणपज्जवणाणतो णाणस्स य दरिसणस्स य विसेसो । केवलणाणं पुण दंसणंति णाणं ति य समाणं ।।
-सन्मतितर्कप्रकरण, २.३. ३. वही, २.९.
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