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________________ ३७० जैन धर्म-दर्शन 8. एक देश आदिष्ट है सद्भावपर्यायों से और अनेक देश आदिष्ट हैं तदुभयपर्यायों से, अतः चतुष्प्रदेशी स्कन्ध आत्मा है और ( अनेक) अवक्तव्य हैं । १०. अनेक देश आदिष्ट हैं सद्भावपर्यायों से और एक देश आदिष्ट है तदुभयपर्यायों से, अतः चतुष्प्रदेशी स्कन्ध ( अनेक ) आत्माएं हैं और अवक्तव्य है । ११. दो देश आदिष्ट हैं सद्भावपर्यायों से और दो देश आदिष्ट हैं तदुभयपर्यायों से, अतः चतुष्पदेशी स्कन्ध (दो) आत्माएँ हैं और (दो) अवक्तव्य हैं । १२. एक देश आदिष्ट है असद्भावपर्यायों से और एक देश आदिष्ट है तदुभयपर्यायों से, अतएव चतुष्प्रदेशी स्कन्ध आत्मा नहीं है और अवक्तव्य है । १३. एक देश आदिष्ट है असद्भावपर्यायों से और अनेक देश आदिष्ट हैं तदुभयपर्यायों से, अतएव चतुष्प्रदेणी स्कन्ध आत्मा नहीं है और ( अनेक ) अवक्तव्य हैं । १४. अनेक देश आदिष्ट हैं असद्भावपर्यायों से और एक देश आदिष्ट है तदुभयपर्यायों से, अतएव चतुष्पदेशी स्कन्ध ( अनेक ) आत्माएं नहीं हैं और अवक्तव्य है । १५. दो देश आदिष्ट हैं सद्भावयों से और दो देश आदिष्ट हैं तदुभयपर्यायों से, अतएव चतुष्पदेशी स्कन्ध ( दो ) आत्माएं नहीं हैं और ( दो ) अवलव्य हैं । १६. एक देश सद्भावों से आदिष्ट है, एक देश असद्भावपर्यायों से आदिष्ट है और एक देश तदुभयपर्यायों से आदिष्ट है, इसलिए चतुरूप्रदेशी स्कन्ध आत्मा है, नहीं है और अवक्तव्य है । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002139
Book TitleJain Dharma Darshan Ek Samikshatmak Parichay
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMohanlal Mehta
PublisherMutha Chhaganlal Memorial Foundation Bangalore
Publication Year1999
Total Pages658
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size21 MB
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