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कर्मसिद्धान्त
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जीव को कर्मो का कर्ता और भोक्ता न मानने वाले विचारक एक उदाहरण देते हैं कि जैसे कोई सुन्दर युवा पुरुष कार्यवश कहीं जा रहा हो और कोई तरुण सुन्दरी उस पर मोहित होकर उसकी अनुगामिनी बन जाय तो इसमें उस पुरुष का क्या कर्तृत्व है ? की तो वह स्त्री है। पुरुष तो उसमें केवल निमित्त कारण है।' इसी प्रकार यदि पद्गल जीव की ओर आकर्षित होकर कर्म के रूप में परिणत होता है तो इसमें जीव का क्या कर्तृत्व है ? कर्ता तो पुद्गल स्वयं है। जीव तो उसमें केवल निमित्त कारण है। यही बात कर्मो के भोक्तृत्व के विषय में भी कही जा सकती है । यदि वस्तुतः स्थिति ऐसी ही है तो आत्मा न कर्ता सिद्ध होगा, न भोक्ता; न बद्ध सिद्ध होगा, न मुक्त; न राग-द्वेषादि भावों से युक्त सिद्ध होगा, न उनसे रहित । पर वस्तुस्थिति ऐसी नहीं है। जिस प्रकार किसी सुन्दर युवा पुरुष पर कोई तरुण सुन्दरी अकस्मात् मोहित होकर अपने आप उसके पीछे लग जाती है उस प्रकार जड़ पुद्गल चेतन आत्मा के पीछे नहीं लगता। पुद्गल अपने आप आकर्षित होकर आत्मा की ओर नहीं भागता। जब जीव सक्रिय होता है तभी पुद्गल-परमाणु उसकी ओर आकृष्ट होते हैं तथा अपने को उसी में मिलाकर उसके साथ एकमेक हो जाते हैं एवं समय आने पर अपना फल देकर उससे पुनः अलग हो जाते हैं। इस सारी प्रक्रिया के लिए जीव पूर्णरूपेण उत्तरदायी है । जीव की क्रिया के कारण ही पुद्गल-परमाणु उसकी ओर आकृष्ट होते हैं, उससे सम्बद्ध होते हैं तथा उसे यथोचित फल प्रदान करते हैं। यह प्रक्रिया न तो अकेले जीव से सम्भव है और न अकेले पद्गल से। १. वही, पृ० १२.
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