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________________ ५२३ जिनकल्पिक कहलाते हैं । गच्छप्रतिबद्ध अर्थात् श्रमणसंघ में रहकर संयम की आराधना करने वाले आचार्य आदि स्थविर अर्थात् स्थविरकल्पिक कहे जाते हैं । जिनकल्पिक प्रायः अचेलकधर्म का आचरण करते हैं जबकि स्थविरकल्पिक प्रायः सचेलकधर्म का पालन करते हैं । जिनकल्पिक प्रायः भोजनादि के लिए पात्र का उपयोग नहीं करते अपितु अपने हाथों में ही आहारादि ग्रहण करते हैं । स्थविरकल्पिक भोजनादि के लिए पात्र का उपयोग करते हैं । इस दृष्टि से जिनकल्पिक मुनि को करपात्र अथवा पाणिपात्र कह सकते हैं । वस्त्र मर्यादा : आचारशास्त्र Jain Education International आचारांग के प्रथम श्रुतस्कन्ध के अष्टम अध्ययन में निर्वस्त्र, एकवस्त्रधारी, द्विवस्त्रधारी एवं त्रिवस्त्रधारी निर्ग्रन्थों तथा द्वितीय श्रुतस्कन्ध की प्रथम चूला के पाँचवें अध्ययन में चतुर्वस्त्रधारी निर्ग्रन्थियों का उल्लेख हैं । जो भिक्षु तीन वस्त्र रखने वाला है उसे चौथे वस्त्र की कामना अथवा याचना नहीं करनी चाहिए । जो वस्त्र उसे कल्प्य हैं उन्हीं की कामना एवं याचना करनी चाहिए, अकल्प्य की नहीं । कल्प्य वस्त्र जैसे भी मिलें, उन्हें बिना किसी प्रकार का संस्कार किये धारण कर लेना चाहिए । उन्हें धोना अथवा रंगना नहीं चाहिए । यही बात दो वस्त्रधारी एवं एक वस्त्रधारी भिक्षु के विषय में भी समझनी चाहिए । तरुण भिक्षु के लिए एक वस्त्र धारण करने का विधान है । भिक्षुणी के लिए चार वस्त्र - संघाटियाँ रखने का विधान किया गया है जिनका नाप इस प्रकार है: एक दो हाथ की, दो तीन-तीन हाथ की और एक चार हाथ की ( लम्बी ) । दो हाथ की संघाटी उपाश्रय में पहनने के लिए, - For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002139
Book TitleJain Dharma Darshan Ek Samikshatmak Parichay
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMohanlal Mehta
PublisherMutha Chhaganlal Memorial Foundation Bangalore
Publication Year1999
Total Pages658
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size21 MB
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