________________
जैन धर्म-दर्शन किसी प्रकार का उल्लेख नहीं किया है। सम्भवतः इस प्रकार
का उल्लेख उन्होंने आवश्यक न समझा हो क्योंकि कषायप्रातकार के नाम का भी उन्होंने अपने चूर्णिसूत्रों में कोई निर्देश नहीं किया है। यह भी सम्भव है कि उन्हें एतद्विषयक विशेष जानकारी प्राप्त न हुई हो एवं परम्परा से चली आनेवाली गाथाओं पर अर्थ के स्पष्टीकरण की दृष्टि से चूर्णिसूत्र लिख दिये हों। जो कुछ भी हो, इतना निश्चित है कि कषायप्राभूत की २३३ गाथाओं में १८० गाथाएँ तो स्वयं ग्रन्थकार की बनाई हुई हैं और शेष ५३ गायाएं परकृत हैं। जयधवलाकार ने जहाँ-कहीं कषायप्राभूत की गाथाओं का निर्देश किया है, सर्वत्र १८० की संख्या ही दी है। यद्यपि उन्होंने एक स्थान पर २३३ गाथाओं का उल्लेख किया है और यह सिद्ध करने की चेष्टा की है कि ये सब गाथाएं यानी २३३ गाथाएँ गुणधराचार्य-कृत हैं किन्तु उनका वह समाधान सन्तोषकारक नहीं है। घवला और जयधवला: - वीरसेनाचार्य-विरचित धवला टीका कर्मप्राभूत (षट्खण्डागम ) की अति महत्त्वपूर्ण बृहत्काय व्याख्या है। धवला से पूर्व रची गई कर्मप्राभूत की टीकाओं का उल्लेख इन्द्रनन्दि-कृत श्रुतावतार में मिलता है। ये टीकाएं वर्तमान में अनुपलब्ध हैं।
कर्मप्राभत की उपलब्ध टीका धवला के कर्ता का नाम वीरसेन है। ये आर्यनन्दि के शिष्य तथा चन्द्रसेन के प्रशिष्य थे एवं एलाचार्य इनके विद्यागुरु थे। वीरसेन सिद्धान्त, छन्द, ज्योतिष, व्याकरण तथा प्रमाणशास्त्र में निपुण थे एवं भट्टारक-पद से विभूषित थे । कषायप्राभत की दीका
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org