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________________ जैन धर्म-दर्शन और आकृष्ट होते हैं अतः वह उनके आकर्षण का निमित्त हुआ। वे परमाणु आत्म-प्रदेशों के साथ एकमेक होकर कर्मरूप में परिणत हो जाते हैं अतः आत्मा कर्मों का कर्ता हुआ। आत्मा को ही वैभाविक भावों के रूप में उनका फल भोगना पड़ता है अतः वह कर्मो का भोक्ता भी हुआ। कर्म की मर्यादा-जैन सिद्धान्त का यह निश्चित मत है कि कर्म का सम्बन्ध व्यक्ति के शरीर, मन और आत्मा से है। चूंकि व्यक्ति का शरीर, मन एवं आत्मा एक निश्चित सीमा में बद्ध हैं अर्थात् सीमित हैं अतः कर्म भी उसी सीमा में रहकर अपना कार्य करता है। यदि कर्म की यह सीमा न मानी जाय तो वह आकाश की तरह सर्वव्यापक हो जाएगा। वस्तुतः आत्मा का स्वदेहपरिमाणत्व कर्म के ही कारण है। जब आत्मा कर्म के कारण अपने शरीर में ही बद्ध रहती है तब कर्म उसे छोड़कर कहाँ जा सकता है ? हाँ, आत्मा जब सब प्रकार के शरीरों को त्यागकर मुक्त हो जाती है तब कर्म का उससे कोई सम्बन्ध नहीं रह जाता अतः कर्म और आत्मा हमेशा के लिए अलग-अलग हो जाते हैं । अथवा यों कहिए कि कर्म का आत्मा से हमेशा के लिए अलग हो जाने का नाम ही मुक्ति अथवा मोक्ष है । संसारी आत्मा अथवा जीव सदैव किसी-न-किसी प्रकार के शरीर में बद्ध रहता है तथा उससे सम्बद्ध कर्मपिण्ड भी उसी शरीर की सीमाओं में सीमित रहता है। क्या शरीर की सीमाओं में बंधा हुआ कर्म अपनी सीमाओं का उल्लंघन कर फल प्रदान कर सकता है ? क्या कर्म व्यक्ति के शरीर अर्थात् तन-मन-वचन से असम्बद्ध यानी भिन्न पदार्थों की उत्पत्ति, प्राप्ति, विनाश आदि के लिए उत्तरदायी हो Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002139
Book TitleJain Dharma Darshan Ek Samikshatmak Parichay
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMohanlal Mehta
PublisherMutha Chhaganlal Memorial Foundation Bangalore
Publication Year1999
Total Pages658
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size21 MB
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