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________________ आचारशास्त्र ५४५ में गुमाण व्रत, अणवतों की होती है अविश ४. द्विपदचतुष्पद-परिमाण-अतिक्रमण, ५. कुप्य'-परिमाणअतिक्रमण । मर्यादा से अधिक परिग्रह की प्राप्ति होने पर उसका दानादि सत्कार्यों में उपयोग कर लेना चाहिए। इससे परिग्रह-परिमाण व्रत की आसानी से रक्षा हो सकती है तथा समाजहित के कार्यों को आवश्यक प्रोत्साहन मिल सकता है। गुणवत: अणुव्रतों की रक्षा तथा विकास के लिए जैन आचारशास्त्र में गुणवतों की व्यवस्था की गई है। गुणव्रत तीन हैं : १. दिशापरिमाण व्रत, २. उपभोग-परिभोग-परिमाण व्रत, ३. अनर्थदण्डविरमण व्रत । अणुव्रतों की भावनाओं की दृढ़ता के लिए जिन विशेष गुणों की आवश्यकता होती है उन्हें गुणव्रत कहा जाता है। इनकी उपस्थिति में अणुव्रतों की रक्षा विशेष सरलता से हो सकती है। १. दिशा-परिमाण-अपनी त्यागवृत्ति के अनुसार व्यवसायादि प्रवृत्तियों के निमित्त दिशाओं की मर्यादा निश्चित करना दिशा-परिमाण व्रत है। इस गुणव्रत से इच्छा-परिमाण अथवा परिग्रह-परिमाणरूप पाँचवें अणुव्रत की रक्षा होती है। दिशा-परिमाण व्रत के निम्नोक्त पाँच अतिचार हैं : १. ऊर्ध्वदिशा-परिमाण-अतिक्रमण, २. अधोदिशा-परिमाण-अतिक्रमण, ३. तिर्यदिशा-परिमाण-अतिक्रमण, ४. क्षेत्रवृद्धि, ५. स्मृत्यन्तर्धा । प्रमादवश अथवा अज्ञान के कारण ऊंची दिशा के निश्चित परिमाण का उल्लंघन करने पर लगने वाले दोष का नाम ऊर्ध्वदिशा-परिमाण-अतिक्रमण है। नीची दिशा के परिमाण का १. कुप्य अर्थात् सुवर्ण और चांदी को छोड़कर अन्य धातु आदि के उपकरण । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002139
Book TitleJain Dharma Darshan Ek Samikshatmak Parichay
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMohanlal Mehta
PublisherMutha Chhaganlal Memorial Foundation Bangalore
Publication Year1999
Total Pages658
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size21 MB
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