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________________ आचारशास्त्र ५३१ करनी चाहिए क्योंकि जो उपशमभाव रखता है वही आराधक होता है। श्रमणत्व का सार उपशम ही है अतः जो उपशमभाव नहीं रखता वह विराधक कहा जाता है। पंडितमरण : मरण दो प्रकार का होता है : बालमरण और पंडितमरण । अज्ञानियों का मरण बालमरण एवं ज्ञानियों का मरण पंडितमरण कहा जाता है। जो विषयों में आसक्त होते हैं एवं मृत्यु से भयभीत रहते हैं वे अज्ञानी बाल मरण से मरते हैं। जो विषयों में अनासक्त होते हैं यथा मृत्यु से निर्भय रहते हैं वे ज्ञानी पंडितभरण से मरते हैं । चूंकि पंडितमरण में संयमी का चित्त समाधियुक्त होता है अर्थात् संयमी के चित्त में स्थिरता एवं समभाव की विद्यमानता होती है अतः पंडितमरण को समाधिमरण भी कहते हैं। जब भिक्षु या भिक्षुणी को यह.प्रतीति हो जाय कि मेरा शरीर तप आदि के कारण अत्यन्त कृश हो गया है अथवा रोग आदि कारणों से अत्यन्त दुर्वल हो गया है अथवा अन्य किसी आकस्मिक कारण से मृत्यु समीर आ गई है एवं संयम का निर्वाह असंभव हो गया है तब वह क्रमश: आहार का संकोच करता हुआ कषाय को कृश करे, शरीर को समाहित करे एवं शान्त चित्त से शरीर का परित्याग करे। इसी का नाम समाधिमरण अथवा पंडितमरण है। चूंकि इस प्रकार के मरण में शरीर एवं कषाय को कृश किया जाता है-कुरेदा जाता है अतः इसे संलेखना भी कहते हैं । संलेखना में निर्जीव एकान्त स्थान में तृणशय्या (संस्तारक) बिछा कर आहारादि का परित्याग किया जाता है अतः इसे संथारा (संस्तारक) भी कहते हैं । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002139
Book TitleJain Dharma Darshan Ek Samikshatmak Parichay
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMohanlal Mehta
PublisherMutha Chhaganlal Memorial Foundation Bangalore
Publication Year1999
Total Pages658
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size21 MB
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