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आचारशास्त्र
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जमाए
आत्मचिन्तन के निमित्त सर्व सावधक्रिया का त्याग कर शान्तिपूर्ण स्थान में बैठकर उपवासपूर्वक नियत समय व्यतीत करना पौषधोपवास है। इस व्रत में उपवास का मुख्य प्रयोजन आत्मतत्त्व का पोषण होता है अतः इसे पौषधोपवास व्रत कहते हैं। आत्मपोषण के निमित्त पौषधोपवास को अंगीकार करने वाला श्रावक भौतिक प्रलोभनों से दूर रहता है, भौतिक आपत्तियों से व्याकुल अथवा विचलित भी नहीं होता । इस व्रत में स्थित साधक श्रमणवत् साधनारत होता है। वह आहार के परित्याग के साथ ही साथ उपलक्षण से शरीरसत्कार अर्थात् शारीरिक शृंगार, अब्रह्मचर्य अर्थात् मैथुन एवं सावध व्यापार अर्थात् हिंसक क्रिया का भी त्याग करता है। .
पौषधोपवास व्रत के निम्नोक्त पाँच अतिचार हैं : १. अप्रतिलेखित-दुष्प्रतिलेखित शय्यासंस्तारक, २. अप्रमाजितदुष्प्रमाजित शय्यासंस्तारक, ३ अप्रतिलेखित-दुष्प्रति लेखित उच्चारप्रस्रवणभूमि, ४. अप्रमाजित-दुष्प्राजितम उच्चारप्रस्रवणभूमि, ५. पौषधोपवास-सम्यगननुपालनता। शय्या अर्थात् वसति-मकान और संस्तारक अर्थात् बिछौनाकंबलादि का प्रतिलेखन अर्थात् प्रत्यवेक्षण-निरीक्षण बिलकुल न करना अथवा ठीक ढंग से न करना अप्रतिलेखित-दुष्प्रतिलेखित शय्यासंस्तारक अतिचार है। शय्या व संस्तारक को प्रमाजित किये बिना अर्थात् पोछे बिना-साफ किये बिना अथवा बिना अच्छी तरह साफ किये काम में लेना अप्रमाजित-दुष्प्रमाजित शय्यासंस्तारक अतिवार है। इसी प्रकार मलमूत्र की भूमि का बिना देखे अथवा अच्छी तरह न देखकर उपयोग करना अप्रतिलेखित-दुष्प्रतिलेखित उच्चार-प्रस्रवणभूमि अतिचार है तथा साफ किये बिना अथवा बिना अच्छी तरह साफ किये
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