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________________ ५५६ जैन धर्म-दर्शन उपयोग करना अप्रमार्जित-दुष्प्रमाजित उच्चारप्रस्रवणभूमि अतिचार है। पौषधोपवास का सम्यक् प्रकार से पालन न करना अर्थात् आत्मपोषक तत्त्वों का भलीभाँति सेवन न करना पौषधोपवास-सम्यगननुपालनता अतिचार है । इन सब अतिचारों से दूर रहने वाला श्रावक पौषधोपवास व्रत की यथार्थ आराधना कर सकता है । प्रथम चार अतिचारों में अनिरीक्षण अथवा दुनिरीक्षण एवं अप्रमार्जन अथवा कुप्रमार्जन के कारण हिंसादोष की संभावना रहती है-जीवजन्तु का हनन होने की शक्यता रहती है। ४. अतिथिसंविभाग-यथासिद्ध अर्थात् अपने निमित्त बनाई हुई अपने अधिकार की वस्तु का अतिथि के लिए समुचित विभाग करना यथासंविभाग अथवा अतिथिसंविभाग कहलाता है। जैसे श्रावक अपनी आय को अपने तथा कुटुम्ब के लिए व्यय करना अपना कर्तव्य समझता है वैसे ही वह अतिथि आदि के निमित्त अपनी आय का अमुक भाग सहजतया व्यय करना भी अपना कर्तव्य मानता है। यह कार्य वह किसी स्वार्थ के कारण नहीं करता अपितु विशुद्ध परमार्थ की भावना से करता है। इसलिए उसका यह त्याग उत्कृष्ट कोटि में आता है। जिसके आने-जाने की कोई तिथि अर्थात दिन निश्चित न हो उसे अतिथि कहते हैं। जो घूमता-फिरता कभी भी कहीं पहुंच जाय वह अतिथि है । उसका कोई निश्चित कार्यक्रम नहीं होता, जाने-आने के निश्चित स्थान नहीं होते । इतना ही नहीं, उसका भोजन आदि ग्रहण करने का भी कोई निश्चित कार्यक्रम नहीं होता। उसे जहाँ जिस समय जैसी भी उपयुक्त सामग्री उपलब्ध हो जाती है वहाँ उस समय उसी से सन्तोष प्राप्त कर लेता है । निर्ग्रन्थ श्रमण को इसी प्रकार का अतिथि कहा गया है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002139
Book TitleJain Dharma Darshan Ek Samikshatmak Parichay
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMohanlal Mehta
PublisherMutha Chhaganlal Memorial Foundation Bangalore
Publication Year1999
Total Pages658
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size21 MB
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