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जैन धर्म-दर्शन
यही अन्तिम साध्य है । यही दुःख की आत्यन्तिक निवृत्ति है । यही सुख का अन्तिम रूप है । यही ज्ञान, दर्शन, सुख और वीर्य की पराकाष्ठा है ।
पुद्गल :
भौतिक तत्त्व आध्यात्मिक तत्त्व से स्वतन्त्र है | जिसे सामान्यतया जड़ या भौतिक कहा जाता है वही जैन दर्शन में पुद्गल शब्द से व्यवहृत होता है । बौद्ध दर्शन में पुद्गल शब्द का आत्मा के अर्थ में प्रयोग हुआ है। पुद्गल शब्द में दो पद हैं- 'पुद्' और 'गल' । 'पुद्' का अर्थ होता है पूरण अर्थात् वृद्धि और 'गल' का अर्थ होता है गलन अर्थात हास । जो द्रव्य पूरण और गलन द्वारा विविध प्रकार से परिवर्तित होता है वह पुद्गल है ।" पूरण और गलनरूप क्रिया केवल पुद्गल में ही होती है, अन्य में नहीं । पुद्गल का एक रूप दूसरे रूप में पूरण और गलन द्वारा ही परिवर्तित होता है ।
पुद्गल के मुख्य चार धर्म होते हैं- स्पर्श, रस, गन्ध और वर्णं । पुद्गल के प्रत्येक परमाणु में ये चारों धर्मं होते हैं। इनके जैन दर्शन में बीस भेद किये जाते हैं ।
स्पर्श के आठ भेद होते हैं - मृदु, कठिन, गुरु, लघु, शीत, उष्ण, स्निग्ध और रूक्ष |
रस के पाँच भेद होते हैं- तिक्त, कटुक, आम्ल, मधुर और
कषाय ।
१. पूरणगलनान्वर्थसंज्ञत्वात् पुद् गलाः ।
२. बही, ५. २३.७-१०.
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-तत्त्वार्थ राजवार्तिक, ५.१.२४.
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