SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 134
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ११९ तत्त्वविचार थोड़ी-सी भी एकरूपता नहीं रह सकती। ऐसी दशा में वस्तु नित्य और अनित्य उभयात्मक होनी चाहिए। जैनदर्शन-सम्मत यह लक्षण अनुभव से अव्यभिचारी है। __ जैन दर्शन सदसत्कार्यवादी है, अतः वह उत्पाद की व्याख्या इस प्रकार करता है-स्वजाति का परित्याग किये बिना भावान्तर का ग्रहण करना उत्पाद है। मिट्टी का पिण्ड घटपर्याय में परिणत होता हुआ भी मिट्टी ही रहता है। मिट्टीरूप जाति का परित्याग किये बिना घटरूप भावान्तर का जो ग्रहण है वही उत्पाद है। इसी प्रकार व्यय का स्वरूप बताते हुए कहा गया है कि स्वजाति का परित्याग किये बिना पूर्वभाव का जो विगम है वह व्यय है। घट की उत्पत्ति में पिण्ड की आकृति का विगम व्यय का उदाहरण है। पिण्ड जब घट बनता है तब उसकी पूर्वाकृति का व्यय हो जाता है । इस व्यय में मिट्टी वही बनी रहती है, केवल आकृति का नाश होता है। अर्थात् मिट्टी की पर्याय परिवर्तित हो जाती है, मिट्टी वही रहती है। अनादि पारिणामिक स्वभाव के कारण वस्तु का सर्वथा नाश न होना ध्रुवत्व है। उदाहरण के लिए पिण्डादि अवस्थाओं में मिट्टी का जो अन्वय है वह ध्रौव्य है। इन तीनों दशाओं के जो उदाहरण दिये गये हैं वे केवल समझने के लिए हैं। मिट्टी हमेशा मिट्टी ही रहे, यह आवश्यक नहीं। जैन दर्शन पृथ्वी आदि परमाणुओं को नित्य नहीं मानता है। परमाणु एक अवस्था को छोड़कर दूसरी अवस्था को ग्रहण कर सकता है । जड़ और चेतन का जो विभाग है, जीव का भव्य और अभव्यसम्बन्धी जो विभाग है वह नित्य कहा जा सकता है। १. सर्वार्थसिद्धि, ५. ३०. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002139
Book TitleJain Dharma Darshan Ek Samikshatmak Parichay
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMohanlal Mehta
PublisherMutha Chhaganlal Memorial Foundation Bangalore
Publication Year1999
Total Pages658
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size21 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy