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________________ २७४ जैन धर्म-दर्शन है।' सर्वार्थसिद्धि और तत्त्वार्थराजवातिक में भी इसी मत का समर्थन है। यहाँ प्रश्न यह है कि क्या ये दोनों मत परस्पर विरोधी हैं ? एक मत के अनुसार श्रुतज्ञान के लिए मतिज्ञान अनिवार्य है, जबकि मतिज्ञान के लिए श्रुतज्ञान आवश्यक नहीं। दूसरा मत कहता है कि मते और श्रुत दोनों सहचारी हैं । एक के अभाव में दूसरा नहीं रह सकता । जहाँ मति होगी वहाँ श्रुत अवश्य होगा और जहाँ श्रुत होगा वहाँ मति अवश्य होगी। हम समझते हैं कि ये दोनों मत परस्पर विरोधी नहीं हैं। उमास्वाति जब यह कहते हैं कि श्रुत के पूर्व मति आवश्यक है तो उसका अर्थ केवल इतना ही है कि जब कोई विशेष श्रुतज्ञान उतान होता है तब वह तद्विषयक मतिपूर्वक ही होता है । पहले शब्द सुनाई देता है और फिर उसका श्रुतज्ञान होता है। मतिज्ञान के लिए यह आवश्यक नहीं कि पहले श्रुतज्ञा और • फिर मतिनान हो, क्योंकि मतिज्ञान पहले होता है और श्रुतज्ञान वाद में । यह भी आवश्यक नहीं कि जिस विषय का मतिज्ञान हो उसका श्रुतज्ञान भी हो । ऐसी दशा में दोनों सहचारी कैसे हो सकते हैं ? नन्दीमूत्र में जो सहचारित्व है वह किसी विशेष ज्ञान की अपेक्षा से नहीं है। वह तो एक सामान्य सिद्धान्त है । सामान्यतया मति और श्रुत सहचारी हैं क्योंकि प्रत्येक जीव में ये दोनों ज्ञान साथ-साथ रहते हैं। मति और श्रुत के बिना कोई जीव नहीं है। एकेन्द्रिय से लगाकर संजी पंचेन्द्रिय तक हरेक जीव में कम-से-कम ये दो ज्ञान रहते हैं । इसी दृष्टि से यह कहा गया है कि जहाँ मतिज्ञान है वहाँ श्रुतनान भी है और जहाँ श्रुनजान है वहाँ मतिज्ञान भी है। ये १. २४. २. सर्वार्थ सिदि. १.३०; तत्वार्थ राजवार्तिक, १.६.३०. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002139
Book TitleJain Dharma Darshan Ek Samikshatmak Parichay
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMohanlal Mehta
PublisherMutha Chhaganlal Memorial Foundation Bangalore
Publication Year1999
Total Pages658
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size21 MB
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