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________________ जैन धर्म-दर्शन मृत्यु के पश्चात् प्राणी अपने कर्म के अनुसार इन चार गतियों में से किसी एक गति में जाकर जन्म ग्रहण करता है जब जीव एक शरीर को छोड़कर दूसरा शरीर धारण करने के लिए जाता है तब आनुपूर्वी नाम कर्म उसे अपने उत्पत्ति-स्थान पर पहुंचा देता है । आनुपूर्वी नाम कर्म के लिए नासा-रज्जु अर्थात् 'नाथ' का दुष्टान्त दिया जाता है। जैसे बैल को इधरउधर ले जाने के लिए नाथ की सहायता अपेक्षित होती है उसी प्रकार जीव को एक गति से दूसरी गति में पहुंचने के लिए आनुपूर्वी नाम कर्म की मदद की जरूरत पड़ती है। समश्रेणी-- ऋजुगति के लिए आनुपूर्वी को यावश्यकता नहीं रहती अपितु विश्रेणी-वक्रगति के लिए रहती है। गत्यन्तर के समय जीव के साथ केवल दो प्रकार का शरीर रहता है : तैजस और कार्मण । अन्य प्रकार के शरीर (औदारिक अथवा वैक्रिय) का निर्माण वहाँ पहुचने के बाद प्रारम्भ होता है। गुणस्थान : आध्यात्मिक विकास को व्यावहारिक परिभाषा में चारित्रविकास कह सकते हैं.। मनुष्य के आत्मिक गुणों का प्रतिबिम्ब उसके चारित्र में पड़े बिना नहीं रहता। चारित्र की विविध दशाओं के आधार पर आध्यात्मिक विकास की भूमिकाओं अथवा अवस्थाओं का सहज ही अनुमान हो सकता है। आत्मा की विविध अवस्थाओं को तीन मुख्य रूपों में विभक्त किया जा सकता है : निकृष्टतम, उत्कृष्टतम और तदन्तर्वर्ती । अज्ञान अथवा मोह का प्रगाढ़तम आवरण आत्मा की निकृष्टतम अवस्था है। विशुद्धतम ज्ञान अथवा आत्यन्तिक व्यपगतमोहता आत्मा की उत्कृष्टतम अवस्था है। इन दोनों चरम अवस्थाओं www.jainelibrary.org. Jain Education International For Private & Personal Use Only
SR No.002139
Book TitleJain Dharma Darshan Ek Samikshatmak Parichay
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMohanlal Mehta
PublisherMutha Chhaganlal Memorial Foundation Bangalore
Publication Year1999
Total Pages658
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size21 MB
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