________________
६२८
जैन धर्म-दर्शन
क्रियाएँ लघुचातुर्मासिक प्रायश्चित्त के योग्य हैं ।
निशीथसूत्र के अन्तिम उद्देश में सकपट आलोचना के लिए निष्कपट आलोचना से एकमासिक अतिरिक्त प्रायश्चित्त का विधान है तथा प्रायश्चित्त करते हुए पुनः दोष लगने पर विशेष प्रायश्चित्त की व्यवस्था है । व्यवहारसूत्र के प्रथम उद्देश में भी इस विषय पर प्रकाश डाला गया है ।
कहीं-कहीं ऐसा भी देखने में आता है कि एक ही प्रकार के दोष के लिए भिन्न-भिन्न प्रकार के प्रायश्चित्त नियत किये गये हैं। इसका कारण परिस्थिति की भिन्नता, अपराधी की भावना एवं अपराध की तीव्रता-मंदता है । ऊपर से समान दिखाई देने वाले दोष में परिस्थिति की विशेषता एवं अपराधी के आशय के अनुरूप तारतम्य होना स्वाभाविक है। इसी तारतम्य के अनुसार अपराध की तीव्रता - मंदता का निर्णय कर तदनुरूप दण्ड-व्यवस्था की जाती है । अतः एक ही प्रकार के दोष के लिए भिन्न-भिन्न प्रकार के प्रायश्चित्त देने में किसी प्रकार का विरोध नहीं है ।
सामान्यतया प्रायश्चित्त देने का अधिकार आचार्य को होता है । परिस्थितिविशेष को ध्यान में रखते हुए अन्य अधिकारी भी इस अधिकार का उपयोग कर सकते हैं । अपराध विशेष अथवा अपराधी विशेष को दृष्टि में रखते हुए सम्पूर्ण संघ भी एतद्विषयक आवश्यक कार्यवाही कर सकता है । इस प्रकार प्रायश्चित्त देने का अथवा तद्विषयक निर्णय का कार्य परिस्थिति, अपराध एवं अपराधी को दृष्टि में रखते हुए आचार्य, अन्य कोई पदाधिकारी अथवा सकल श्रमण-संघ सम्पन्न करता है ।
Jain Education International
श्रमण, सितम्बर १९७७
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org