Book Title: Jain Dharma Darshan Ek Samikshatmak Parichay
Author(s): Mohanlal Mehta
Publisher: Mutha Chhaganlal Memorial Foundation Bangalore

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Page 641
________________ जैन धर्म-दर्शन छेद का अर्थ है दीक्षापर्याय में कमी । इस प्रायश्चित्त में विभिन्न अपराधों के लिए दीक्षावस्था में विभिन्न समय की कमी कर दी जाती है । इस कमी से अपराधी श्रमण का स्थान संघ में अपेक्षाकृत नीचा हो जाता है। जो तप के गर्व से उन्मत्त है अथवा तप के लिए सर्वथा अयोग्य है, जिसकी तप पर तनिक भी श्रद्धा नहीं है अथवा जिसका तप से दमन करना अति कठिन है, उसके लिए छेद प्रायश्चित्त का विधान है। __ पंचेन्द्रियघात, मैथुनप्रतिसेवन आदि अपराधों के लिए मूल प्रायश्चित्त का विधान है । मूल का अर्थ हे अपराधी की पूर्व प्रव्रज्या को मूलतः समाप्त कर उसे पुनर्दीक्षित करना अर्थात् नई दीक्षा देना। तीव्र क्रोधादि से प्ररुष्ट चित्तवाले घोर परिणामी श्रमण के लिए अनवस्थाप्य प्रायश्चित्त का विधान है । अनवस्थाप्य का अर्थ है अपराधी को तुरन्त नई दीक्षा न देकर अमुक प्रकार की तपस्या करने के बाद ही पुनः दीक्षित करना। पारांचिक प्रायश्चित्त देने का अर्थ है अपराधी को हमेशा के लिए संघ से बाहर निकाल देना । तीर्थकर, प्रवचन, आचार्य, गणधर आदि की अभिनिवेशवश पुनः पुनः आशातना करनेवाला पारांचिक प्रायश्चित्त का अधिकारी होता है । उसे श्रमण-संघ से स्थायी रूप से बहिष्कृत कर दिया जाता है । किसी भी अवस्था में उसे पुनः प्रव्रज्या प्रदान नहीं की जाती। बृहत्कल्प के चतुर्य उद्देश में दुष्ट एवं प्रमत्त श्रमण के लिए पारांचिक प्रायश्चित्त का विधान है तथा साधर्मिकस्तैन्य, अन्यधार्मिकस्तैन्य एवं मुटिपहार के लिए अनवस्थाप्य प्रायश्चित्त की व्यवस्था है ।। निशीथसूत्र में चार प्रकार के प्रायश्चित्त का विधान है : गुरुमासिक, लघुमासिक,गुरुचातुर्मासिक और लघुचातुर्मासिक । यहाँ गुरुमास अथवा मासगुरु का अर्थ उपवास तथा लघुमास अथवा मासलघु का अर्थ एकाशन अर्थात् अर्ध-उपवास समझना चाहिए । इस प्रकार गुरुमासिक आदि तप प्रायश्चित के ही भेद हैं। अंगादान का मर्दन करना, अंगादान के ऊपर की त्वचा दूर करना, Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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