Book Title: Jain Dharma Darshan Ek Samikshatmak Parichay
Author(s): Mohanlal Mehta
Publisher: Mutha Chhaganlal Memorial Foundation Bangalore
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श्रमण-संघ
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जीतकल्प सूत्र में निर्ग्रन्थ-निर्ग्रन्थियों के लिए दस प्रकार के प्रायश्चित्त की व्यवस्था की गई है : १. आलोचना, २. प्रतिक्रमण, ३. उभय, ४. विवेक, ५. व्युत्सर्ग, ६. तप, ७. छेद, ८. मूल, ९. अनवस्थाप्य, १०. पारांचिक । इन दस प्रकारों में से अन्तिम दो प्रकार चतुर्दशपूर्वधर (प्रथम भद्रबाहु) तक ही विद्यमान रहे । तदनन्तर उनका विच्छेद हो गया - व्यवहार बंद हो गया ।
मूलाचार के पंचाचार नामक पंचम अधिकार में भी प्रायश्चित्त के दस ही प्रकार बताये गये हैं। उनमें अन्तिम दो के सिवाय सब नाम वही हैं जो जीतकल्प में है। अन्तिम दो प्रकार परिहार व श्रद्धान के रूप में हैं । सम्भवतः अन्तिम दो प्रायश्चित्तों का व्यवहार बन्द हो जाने के कारण यह अन्तर हो गया हो।
आहारादिग्रहण, बहिर्निर्गम, मलोत्सर्ग आदि प्रवृत्तियों में लगनेवाले दोषों की शुद्धि के लिए आलोचना रूप प्रायश्चित्त का सेवन किया जाता है । आलोचना का अर्थ है सखेद अपराध-स्वीकृति ।
प्रमाद, आशातना, अविनय, हास्य, विकथा, कन्दर्प आदि दोषों की शुद्धि के लिए प्रतिक्रमण रूप प्रायश्चित्त का सेवन किया जाता है । प्रतिक्रमण का अर्थ है दुष्कृत को मिथ्या करना अर्थात् किये हुए अपराधों से पीछे हटना ।
अनात्मवशता, दुश्चिन्तन, दुर्भाषण, दुश्चेष्टा आदि अनेक अपराध आलोचना व प्रतिक्रमण उभय के योग्य हैं।
अशुद्ध आहार आदि का त्याग करना विवेक प्रायश्चित्त कहलाता है। विवेक का अर्थ है अशुद्ध भक्तादि का विचारपूर्वक परिहार ।
गमनागमन, श्रुत, स्वप्न आदि से सम्बन्धित दोषों की शुद्धि के लिए व्युत्सर्ग अर्थात् कायोत्सर्ग किया जाता है । कायोत्सर्ग का अर्थ है शरीर की ममता का त्याग।
ज्ञानातिचार आदि विभिन्न अपराधों की शुद्धि के लिए एकाशन, उपवास, षष्ठभक्त, अष्टमभक्त आदि तपस्याओं का सेवन किया जाता है । इसी का नाम तप प्रायश्चित्त है।
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