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हिंसा-अहिंसा का जैन दर्शन
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की हिंसा में असमानता है। सबसे अल्प हिंसा का भागी वह व्यक्ति होता है जिसके द्वारा निभावना के वध हो जाता है क्योंकि हिंसा-अहिंसा का मुख्य सम्बन्ध भावना से है। जो केवल वध की भावना करता है वह उससे अधिक हिंसा का भागी होता है । जो मानना और वध दोनों करता है वह सर्वाधिक हिंसा का भागी होता है क्योंकि भावना के साथ वध करने वाले की भावना में अधिक तीव्रता होती है जिसका केवल भावना करने वाले में अभाव होता है । वध हो जाना और वध करना, कष्ट पहुँचना और कष्ट देना, हानि हो जाना और हानि पहुँचाना -ई- दो प्रकार की क्रियाओं में बहुत अन्तर है। प्रथम प्रकार की क्रिया भावना से असम्बद्ध होने के कारण अत्यल्प हिंसक होने से अहिंसा के समकक्ष होती है जबकि द्वितीय प्रकार की क्रिया भावना से सम्बद्ध होने के कारण हिंसा की कोटि में आती है। . जैसे हिंसा के क्रूरता, कठोरता, शोक, वैर, क्रोध, द्वेष, ईर्ष्या आदि अनेक रूप होते हैं वैसे ही अहिंसा के भी अनुकम्पा, करुणा, दया, अनुग्रह, मैत्री. समता, सहायता. उपकार, प्रमोद आदि विविध रूप होते हैं । हिंसा विधि रूप होते हुए भी निषेधात्मक रूपों में उपलब्ध होती है तथा अहिंसा निषेधात्मक होते हुए भी विध्यात्मक रूपों में मिलती है। ..
श्रमण, फरवरी १९८०
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