Book Title: Jain Dharma Darshan Ek Samikshatmak Parichay
Author(s): Mohanlal Mehta
Publisher: Mutha Chhaganlal Memorial Foundation Bangalore
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जैन धर्म-दर्शन
गणी का मुख्य कार्य अपने गण को सूत्रार्थ देना अर्थात् शास्त्र पढ़ाना है | गणी को वाचनाचार्य अथवा गणधर भी कहा जाता है।
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गणावच्छेदक अमुक गच्छ अथवा वर्ग का नायक होता है। उस वर्ग के समस्त साधुओं का नियन्त्रण उसके हाथ में होता है ।
श्रमण संघ के विशिष्ट ज्ञानाचारसम्पन्न निर्ग्रन्थ रानिक अथवा रत्नाधि क कहलाते हैं। ये महानुभाव विविध अनुकूल-प्रतिकूल प्रसंगों पर आचार्यादि की सहायता के लिए सदैव तत्पर रहते हैं।
मूलाचार, अनगारधर्मामृत आदि दिगम्बर ग्रंथों में भी श्रमण संघ के विशिष्ट पुरुषों अथवा अधिकारियों के नाम लगभग इसी रूप में मिलते हैं। उनमें आचार्य, उपाध्याय, गणधर, स्थविर, प्रवर्तक, रानिक आदि नाम उपलब्ध होते हैं।
निर्ग्रन्थी-संघ :
निर्ग्रन्थ-संघ की ही भाँति निर्ग्रन्थी संघ भी आचार्य एवं उपाध्याय के ही अधीन होता है। ऐसा होते हुए भी उसके लिए भिन्न व्यवस्था करना अनिवार्य है, क्योंकि उसका संगठन स्वतन्त्र ही होता है। निर्ग्रन्थियों को निर्ग्रन्थों के साथ बैठने, उठने, आने, जाने, खाने, पीने, रहने, फिरने आदि की मनाही है। निर्ग्रन्थियों को अपने ही वर्ग में रहकर संयम की आराधना करनी होती है। यही कारण है कि निर्ग्रन्थी संघ में भी विशिष्ट पदाधिकारियों की नियुक्तियाँ की जाती हैं। इस प्रकार की नियुक्तियाँ मुख्यतः निम्नोक्त चार पदों से सम्बन्धित होती हैं : प्रवर्तिनी, गणावच्छेदिनी, अभिषेका और प्रतिहारी। पूरे श्रमण-संघ में आचार्य का जो स्थान है वही स्थान निर्ग्रन्थी संघ में प्रवर्तिनी का है। उसकी योग्यताएँ भी आचार्य आदि के ही समकक्ष हैं अर्थात् आठ वर्ष की दीक्षापर्यायवाली साध्वी आचारकुशल, प्रवचनप्रवीण तथा असंक्लिष्ट चित्तवाली एवं स्थानांग समवायांग की ज्ञाता होने पर प्रवर्तिनी के पद पर प्रतिष्ठित की जा सकती है। प्रवर्तिनी को महत्तरा के रूप में भी पहचाना जाता है। आचार्य - उपाध्याय के अधीन होने के कारण उसे महत्तमा नहीं कहा जाता। कहीं-कहीं प्रधानतम साध्वी के लिए गणिनी शब्द का भी प्रयोग हुआ है। साध्वी संघ में गणावच्छेदिनी का वही स्थान है जो
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