Book Title: Jain Dharma Darshan Ek Samikshatmak Parichay
Author(s): Mohanlal Mehta
Publisher: Mutha Chhaganlal Memorial Foundation Bangalore

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Page 636
________________ श्रमण-संघ ६२१ भी साधु को अस्थायी रूप से कोई भी पद प्रदान किया जा सकता है। अन्य योग्य साधु के तैयार हो जाने पर अस्थायी पदाधिकारी को अपने पद से अलग हो जाना चाहिए। आचार्य का सामान्य कार्य अपने अधीनस्थ साधु-साध्वीवर्ग की सब तरह की देख-रेख रखना है। वह उनका मुख्य अधिकारी होता है। उसका विशेष कार्य साधु-साध्वियों को उच्च कक्षा की शिक्षा प्रदान करना है- उच्च अध्यापन करना है। आचार्य के बाद उपाध्याय का स्थान है और उसके बाद प्रवर्तक, स्थविर, गणी, गणावच्छेदक, रालिक अथवा रत्नाधिक आदि का। उपाध्याय: उपाध्याय का मुख्य कार्य साधु-साध्वियों को प्राथमिक एवं माध्यमिक कक्षा की शिक्षा प्रदान करना है। व्यवहारसूत्र के तृतीय उद्देश में उपाध्याय-पद की योग्यताओं का उल्लेख करते हुए कहा गया है कि जो कम से कम तीन वर्ष की दीक्षापर्याय वाला है, श्रमणाचार में कुशल है, संयम में सुस्थित है, प्रवचन में प्रवीण है, प्रायश्चित्त प्रदान करने में समर्थ है, गच्छ के लिए क्षेत्रादि का निर्णय करने में निष्णात है, निर्दोष आहारादि की गवेषणा में निपुण है, संक्लिष्ट परिणामों - भावों से अस्पृष्ट है, चारित्रवान् है, बहुश्रुत है वह उपाध्याय पद पर प्रतिष्ठित करने योग्य है। प्रवर्तक, स्थविर, गणी, गणावच्छेदक एवं रत्नाधिक : प्रवर्तक का मुख्य कर्तव्य साधु-साध्वियों को श्रमणाचार की प्रवृत्ति में प्रवृत्त करना एवं तद्विषयक शिक्षा देना है। प्रवर्तक श्रमण-संघ का आचाराधि कारी होता है। वह आचार व विचार दोनों में कुशल होता है। स्थविर (वृद्ध) तीन प्रकार के कहे गये हैं : जाति-स्थविर, सूत्र-स्थविर और प्रव्रज्या स्थविर। साठ वर्ष की आयु होने पर श्रमण जाति-स्थविर होता है। स्थानांगादि सूत्रों का ज्ञाता साधु सूत्र-स्थविर कहलाता है। दीक्षा ग्रहण करने के बीस वर्ष बाद अर्थात् बीस वर्ष की दीक्षापर्याय हो जाने पर निर्ग्रन्थ प्रव्रज्या स्थविर कहलाने लगता है। स्थविर का मुख्य दायित्व श्रमण संघ में प्रविष्ट होने वाले निर्ग्रन्थ-निर्ग्रन्थियों को श्रमण-धर्मोपयोगी प्रारंभिक शिक्षा प्रदान करना है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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