Book Title: Jain Dharma Darshan Ek Samikshatmak Parichay
Author(s): Mohanlal Mehta
Publisher: Mutha Chhaganlal Memorial Foundation Bangalore

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Page 634
________________ श्रमण-संघ ६१९ आचार्य : श्रमण श्रमणियों में आचार्य का स्थान सर्वोपरि है। उसके बाद उपाध्याय, गणी आदि का स्थान आता है। व्यवहारसूत्र के तृतीय उद्देश में आचार्य-पद की योग्यताओं का दिग्दर्शन कराते हुए कहा गया है कि जो कम से कम पाँच वर्ष की दीक्षापर्याय वाला है, श्रमणाचार में कुशल है, प्रवचन में प्रवीण है यावत् दशाश्रुतस्कन्ध, कल्प अर्थात् बृहत्कल्प एवं व्यवहार सूत्रों का ज्ञाता है उसे आचार्य एवं उपाध्याय के पद पर प्रतिष्ठित करना कल्प्य है। आठ वर्ष की दीक्षापर्याय वाला श्रमण यदि आचारकुशल, प्रवचनप्रवीण एवं असंक्लिष्टमना है तथा कम से कम स्थानांग व समवायांग सूत्रों का ज्ञाता है तो उसे आचार्य, उपाध्याय, स्थविर, गणी, गणावच्छेदक आदि की पदवी प्रदान की जा सकती है। ये सामान्य नियम हैं। अपवाद के तौर पर तो विशेष कारणवशात् संयम से भ्रष्ट हो पुनः श्रमणाचार अंगीकार करने वाले निर्ग्रन्थ को एक दिन की दीक्षापर्याय वाला होने पर भी आचार्यादि पद पर प्रतिष्ठित किया जा सकता है। इस प्रकार का निर्ग्रन्थ संस्कारों की दृष्टि से सामान्यतया प्रतीतिकारी, धैर्यशील, विश्वसनीय, समभावी, प्रमोदकारी, अनुमत एवं बहुमत कुल का होना आवश्यक है। इतना ही नहीं, उसमें खुद में प्रतीति, धैर्य, समभाव आदि स्वकुलोपलब्ध गुणों का होना जरूरी है। सूत्रों का ज्ञान तो आवश्यक है ही। इस प्रकार का निर्ग्रन्थ कुलसम्पन्न एवं गुणसम्पन्न होने के कारण अपने दायित्व का सम्यक्तया निर्वाह कर सकता है। __ मैथुन सेवन करनेवाले श्रमण को आचार्य आदि की पदवी प्रदान करने का निषेध करते हुए कहा गया है कि जो गच्छ से अलग हुए बिना अर्थात् गच्छ में रहते हुए ही मैथुन में आसक्त हो उसे जीवनपर्यन्त आचार्य, उपाध्याय, प्रवर्तक, स्थविर, गणी एवं गणावच्छेदक की पदवी देना निषिद्ध है। गच्छ का त्याग कर मैथुन सेवन करनेवाले को पुनः दीक्षित हो गच्छ में सम्मिलित होने के बाद तीन वर्ष तक आचार्यादि की पदवी प्रदान करना निषिद्ध है। तीन वर्ष व्यतीत होने पर यदि उसका मन स्थिर हो, विकार शान्त हों, कषायादि का अभाव हो तो उसे आचार्य आदि के पद पर प्रतिष्ठित किया जा सकता है। श्रमण-श्रमणियों के लिए यह आवश्यक है कि वे आचार्य आदि पूज्य Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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