Book Title: Jain Dharma Darshan Ek Samikshatmak Parichay
Author(s): Mohanlal Mehta
Publisher: Mutha Chhaganlal Memorial Foundation Bangalore
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न धर्म-वन
त्याग कर अन्तर्मुखवृत्ति को स्वीकार करता है तब वह अपने शरीर के प्रति भी अनासक्त हो जाता है अर्थात् स्व-शरीरसम्बन्धी ममता का त्याग कर देता है। इस स्थिति में उस पर जो कुछ भी संकट आता है उसे वह समभावपूर्वक सहता है। ध्यान की साधना अर्थात् चित्त की एकाग्रता के अभ्यास के लिए कायोत्सर्ग अनिवार्य है। कायोत्सर्ग में हिलना-डुलना, बोलनाचलना, उठना-बैठना आदि बन्द होता है। एक स्थान पर बैठकर अयवा खड़े होकर निःश्वल एवं निःस्पन्द मुद्रा में आत्मध्यान में लगना होता है। सर्वविरत श्रमण प्रतिदिन प्रातः व सायं कायोत्सर्ग द्वारा शरीर व आत्मा के सम्बन्ध में विचार करता है कि यह शरीर अन्य है और मैं अन्य हूँ। मैं चेतन हूँ जब कि यह शरीर जड़ है । अपने से भिन्न इस शरीर पर ममत्व रखना अनुचित है। इस प्रकार की उदात्त भावना के अभ्यास के कारण वह कायोत्सर्ग के समय अथवा अन्य प्रसंग पर आने वाले सभी प्रकार के उपसर्गो-कष्टों को सम्यक् प्रकार से सहन करता है। ऐसा करने पर ही उसका कायोत्सर्ग सफल होता है। कायोत्सर्ग दो प्रकार का है। शरीर की चेष्टाओं का निरोध करके एक स्थान पर निश्चल एवं निःस्पन्द स्थिति में खड़े रहना अथवा बैठना द्रव्य-कायोत्सर्ग है। ध्यान अर्थात् आत्मचिन्तन भाव-कायोत्सर्ग है । कायोत्सर्ग में ध्यान का ही विशेष महत्त्व है। शारीरिक स्थिरता ध्यान की निर्विघ्न साधना के लिए आवश्यक है। कायचेष्टा-निरोधरूप द्रव्य-कायोत्सर्ग आत्मचिन्तनरूप भाव-कायोत्सर्ग की भूमिका का कार्य करता है।
प्रत्याख्यान का अर्थ है त्याग। वैसे तो सर्वविरत मुनि के हिंसादि दोषों से युक्त सर्व पदार्थों का त्याग होता ही है
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