Book Title: Jain Dharma Darshan Ek Samikshatmak Parichay
Author(s): Mohanlal Mehta
Publisher: Mutha Chhaganlal Memorial Foundation Bangalore
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जैन धर्म-दर्शन
आहार का त्याग करना निरवशेष प्रत्याख्यान है। इसमें पानी का त्याग भी शामिल है। किसी प्रकार के संकेत के साथ किया जानेवाला त्याग सांकेतिक प्रत्याख्यान कहलाता है, यथा मुट्ठी बाँधकर, गाँठ बाँधकर अथवा अन्य प्रकार से यह प्रत्याख्यान करना कि जब तक मेरी यह मुट्ठी या गाँठ बंधी हुई है अथवा अमुक वस्तु अमुक प्रकार से पड़ी हुई है तब तक मैं चतुर्विध आहार, त्रिविध आहार आदि का त्याग करता हूँ। कालविशेष की मर्यादा अर्थात् समय की निश्चित अवधि के साथ किया जाने वाला त्याग कालिक प्रत्याख्यान कहलाता है।
उत्तराध्ययन-सूत्र के सम्यक्त्व-पराक्रम नामक उनतीसवें अध्ययन में षडावश्यक का संक्षिप्त फल इस प्रकार बतलाया गया है:
सामायिक से सावध योग (पापकर्म) से निवृत्ति होती है। चतुर्विशतिस्तव से दर्शन-विशुद्धि (श्रद्धा-शुद्धि) होती है । वन्दन से नीच गोत्रकर्म का क्षय होता है, उच्च गोत्रकर्म का बंध होता है, सौभाग्य की प्राप्ति होती है, अप्रतिहत आज्ञाफल मिलता है तथा दाक्षिण्यभाव (कुशलता) की उपलब्धि होती है। प्रतिक्रमण से व्रतों के दोषरूप छिद्रों का निरोध होता है। परिणामतः आस्रव (कर्मागमन-द्वार) बन्द होता है तथा शुद्ध चारित्र का पालन होता है। कायोत्सर्ग से प्रायश्चित्त-विशुद्धि होती है-अतिचारों को शुद्धि होती है जिससे आत्मा प्रशस्त धर्मध्यान में रमण करता हुआ परमसुख का अनुभव करता है। प्रत्याख्यान से आस्रव-द्वार बन्द होते हैं तथा इच्छा का निरोध होता है। इच्छा का निरोध होने के कारण साधक वितृष्ण अर्थात् निःस्पृह होता हुआ शान्तचित्त होकर विचरता है।
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