Book Title: Jain Dharma Darshan Ek Samikshatmak Parichay
Author(s): Mohanlal Mehta
Publisher: Mutha Chhaganlal Memorial Foundation Bangalore
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जिनकल्पिक कहलाते हैं । गच्छप्रतिबद्ध अर्थात् श्रमणसंघ में रहकर संयम की आराधना करने वाले आचार्य आदि स्थविर अर्थात् स्थविरकल्पिक कहे जाते हैं । जिनकल्पिक प्रायः अचेलकधर्म का आचरण करते हैं जबकि स्थविरकल्पिक प्रायः सचेलकधर्म का पालन करते हैं । जिनकल्पिक प्रायः भोजनादि के लिए पात्र का उपयोग नहीं करते अपितु अपने हाथों में ही आहारादि ग्रहण करते हैं । स्थविरकल्पिक भोजनादि के लिए पात्र का उपयोग करते हैं । इस दृष्टि से जिनकल्पिक मुनि को करपात्र अथवा पाणिपात्र कह सकते हैं ।
वस्त्र मर्यादा :
आचारशास्त्र
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आचारांग के प्रथम श्रुतस्कन्ध के अष्टम अध्ययन में निर्वस्त्र, एकवस्त्रधारी, द्विवस्त्रधारी एवं त्रिवस्त्रधारी निर्ग्रन्थों तथा द्वितीय श्रुतस्कन्ध की प्रथम चूला के पाँचवें अध्ययन में चतुर्वस्त्रधारी निर्ग्रन्थियों का उल्लेख हैं । जो भिक्षु तीन वस्त्र रखने वाला है उसे चौथे वस्त्र की कामना अथवा याचना नहीं करनी चाहिए । जो वस्त्र उसे कल्प्य हैं उन्हीं की कामना एवं याचना करनी चाहिए, अकल्प्य की नहीं । कल्प्य वस्त्र जैसे भी मिलें, उन्हें बिना किसी प्रकार का संस्कार किये धारण कर लेना चाहिए । उन्हें धोना अथवा रंगना नहीं चाहिए । यही बात दो वस्त्रधारी एवं एक वस्त्रधारी भिक्षु के विषय में भी समझनी चाहिए । तरुण भिक्षु के लिए एक वस्त्र धारण करने का विधान है । भिक्षुणी के लिए चार वस्त्र - संघाटियाँ रखने का विधान किया गया है जिनका नाप इस प्रकार है: एक दो हाथ की, दो तीन-तीन हाथ की और एक चार हाथ की ( लम्बी ) । दो हाथ की संघाटी उपाश्रय में पहनने के लिए,
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