Book Title: Jain Dharma Darshan Ek Samikshatmak Parichay
Author(s): Mohanlal Mehta
Publisher: Mutha Chhaganlal Memorial Foundation Bangalore
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जैन कला एवं स्थापत्य
कला तथा स्थापत्य के क्षेत्र में जैनों का महत्त्वपूर्ण योगदान है। जैन कला एवं स्थापत्य ने विशेष प्रकार की आकृतियां एवं प्रतीक भी प्रस्तुत किये हैं। जैन समाज कला तथा स्थापत्य को संरक्षण प्रदान करने के लिए सुविख्यात है। जैन कला का प्राचीनतम रूप कलिंग देश के राजा खारवेल से तथा जैन स्थापत्य का सबसे पुराना रूप मौर्यकाल से संबंधित है।
जैन प्रतिमाविज्ञान :
सामान्यतः यह स्वीकार किया जाता है कि प्रारम्भ में ब्राह्मणप्रतिमाविज्ञान में मूर्ति पूजा को स्थान नहीं दिया गया था। जहाँ तक अब्राह्मणप्रतिमाविज्ञान की बात है, ऐसा लगता है कि बुद्ध की मूर्तिपूजा के पहले जिन की मूर्तिपूजा प्रारम्भ हुई। दूसरे शब्दो में बौद्ध प्रतिमाविज्ञान की अपेक्षा जैन प्रतिमाविज्ञान में मूर्तिपूजा को पहले स्थान मिला।
जैन प्रतिमाविज्ञान में भी जिनमूर्ति-पूजा अथवा तीर्थंकरमूर्ति-पूजा बहुत प्राचीन नहीं है। किसी भी जैन आगमग्रन्थ में २४ तीर्थकरों में से किसी की भी मूर्तिपूजा अथवा किसी के नाम पर मन्दिर बनवाने का उल्लेख नहीं हुआ है । आगमों में बहुत से चैत्यों का उल्लेख है जिनमें यक्षों की प्रतिष्ठा हुई थी। व्याख्याप्रज्ञप्ति तथा उपासकदशांग में अर्हत् चैत्यों (जिन- चैत्यों) की सामान्य चर्चा हुई है । ज्ञाताधर्मकथा से द्रौपदी के द्वारा जिन - मूर्तिपूजा होने की सामान्य जानकारी होती है। राजप्रश्नीय, स्थानांग तथा जीवाभिगम में शाश्वत प्रतिमाओं का वर्णन है। विद्वानों का यह मत है कि ई. पूर्व चौथी शताब्दी के प्रारम्भ तक जैनों में जिन - मूर्तिपूजा विशेष प्रचलित नहीं हो पाई थी। पटना के निकटस्थ लोहानीपुर से प्राप्त एक जिनमूर्ति के अति चमकीले घड से जानकारी प्राप्त होती है कि ई. पूर्व तीसरी शती अथवा उससे कुछ पहले जिनमूर्ति-पूजा प्रारम्भ हुई। जैन आगम ग्रन्थों में जिनमूर्ति-पूजा का उल्लेख बहुत ही कम हुआ है। ऐसा लगता है कि भगवान् महावीर अथवा उनके निकट के उत्तराधिकारियों के समय तक जिनमूर्ति पूजा प्रचलित नहीं हो पाई थी ।
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