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जैन धर्म-दर्शन
आचारांग के प्रथम श्रुतस्कन्ध के आठवें अध्ययन में समाधिमरण स्वीकार करने वाले को बुद्ध व ब्राह्मण कहा गया है एवं इस मरण को महावीरोपदिष्ट बताया गया है । समाधिमरण ग्रहण करने वाले की माध्यस्थ्यवृत्ति का वर्णन करते हुए कहा गया है कि वह संयमी न जीवित रहने की आकांक्षा रखता है, न मृत्यु की प्रार्थना करता है । वह जीवन और मरण में आसक्तिरहित होता है - समभाव रखता है । इस अवस्था में यदि कोई हिंसक प्राणी उसके शरीर का मांस व रक्त खा जाय तो भी वह उस प्राणी का हनन नहीं करता और न उसे अपने शरीर से दूर ही करता है । वह यह समझता है कि ये प्राणी उसके नश्वर शरीर का ही नाश करते हैं, अमर आत्मा का नहीं ।
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श्रावकाचार :
जैन आचारशास्त्र में व्रतधारी गृहस्थ श्रावक, उपासक, अणुव्रती, देशविरत, सागार आदि नामों से जाना जाता है । चूंकि वह श्रद्धापूर्वक अपने गुरुजनों अर्थात् श्रमणों से निर्ग्रन्थप्रवचन का श्रवण करता है अतः उसे श्राद्ध अथवा श्रावक कहते 'हैं। श्रमणवर्ग की उपासना करने के कारण वह श्रमणोपासक अथवा उपासक कहलाता है । अणुव्रतरूप एकदेशीय अर्थात् अपूर्ण संयम अथवा विरति धारण करने के कारण उसे अणुव्रती, देशविरत, देशसंयमी अथवा देशसंयत कहा जाता है । चूंकि वह आगार अर्थात् घर वाला है - उसने घरबार का त्याग नहीं किया है अतएव उसे सागार, आगारी, गृहस्थ, गृही आदि नामों से पुकारा जाता है | श्रावकाचार से सम्बन्धित ग्रंथों अथवा प्रकरणों में उपासक-धर्म का प्रतिपादन तीन प्रकार से किया गया है : १. बारह व्रतों के आधार पर, २. ग्यारह प्रतिमाओं के
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