Book Title: Jain Dharma Darshan Ek Samikshatmak Parichay
Author(s): Mohanlal Mehta
Publisher: Mutha Chhaganlal Memorial Foundation Bangalore
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जैन धर्म-दर्शन
२. देशावकाशिक-दिशापरिमाण व्रत में जीवन भर के लिए मर्यादित दिशाओं के परिमाण में कुछ घण्टों अथवा दिनों के लिए विशेष मर्यादा निश्चित करना अर्थात् विशेष कमी करना देशावकाशिक व्रत है। देश अर्थात् क्षेत्र का एक अंश और अवकाश अर्थात स्थान । चूकि इस व्रत में जीवनपर्यन्त के लिए गृहीत दिशापरिमाण अर्थात् क्षेत्रमर्यादा के एक अंशरूप स्थान की कुछ समय के लिए विशेष सीमा निर्धारित की जाती है इसलिए इसे देशावकाशिक व्रत कहते हैं । यह व्रत क्षेत्रमर्यादा को संकुचित करने के साथ ही उपलक्षण से उपभोग-परिभोगादिरूप अन्य मर्यादाओं को भी संकुचित करता है। मर्यादित क्षेत्र से बाहर न जाना, बाहर से किसी को न बुलाना, न बाहर किसी को भेजना और न बाहर से कोई वस्तु मंगवाना, बाहर क्रय-विक्रय न करना आदि प्रस्तुत व्रत के लक्षण हैं।
देशावकाशिक व्रत के निम्नोक्त पाँच अतिचार हैं : १. आनयनप्रयोग, २. प्रेषणप्रयोग, ३. शब्दानुपात, ४. रूपानुपात, ५. पुद्गलप्रक्षेप । मर्यादित क्षेत्र से बाहर की वस्तु लाना, मंगवाना आदि आनयनप्रयोग है । मर्यादित क्षेत्र के बाहर वस्तु भेजना, लेजाना आदि प्रेषणप्रयोग है। किसी को निर्धारित क्षेत्र से बाहर खड़ा देख कर खाँसी आदि शब्दसंकेतों द्वारा उसे बुलाने आदि की चेष्टा करना शब्दानुपात है । सीमित क्षेत्र से बाहर रहे हुए लोगों को बुलाने आदि की चेष्टा से हाथ, मुंह, सिर आदि का इशारा करना अर्थात् रूपसंकेतों का प्रयोग करना रूपानुपात है। मर्यादित क्षेत्र से बाहर रहे हुए व्यक्ति को अपना अभिप्राय जताने के लिए कंकड़, कागज आदि फेंकना पुदगलप्रक्षेप है।
३. पौषधोपवास-विशेष नियमपूर्वक उपवास करना अर्थात्
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