Book Title: Jain Dharma Darshan Ek Samikshatmak Parichay
Author(s): Mohanlal Mehta
Publisher: Mutha Chhaganlal Memorial Foundation Bangalore

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Page 578
________________ आचारशास्त्र ५६३ प्रतिमा धारण करने वाले गृहस्थ को जब कोई एक बार अथवा अनेक बार बुलाता है या एक अथवा अनेक प्रश्न पूछता है तब वह दो ही उत्तर देता है। जानने पर कहता है कि मैं यह जानता हूं। न जानने की स्थिति में कहता है कि मुझे यह मालूम नहीं। चूकि इस प्रतिमा में उद्दिष्ट भक्त का त्याग अभिप्रेत होता है अतः इसका नाम उद्दिष्टभक्तत्यागप्रतिमा है। ___ग्यारहवीं प्रतिमा का नाम श्रमणभूतप्रतिमा है। श्रमणभूत का अर्थ होता है श्रमण के सदृश । जो गृहस्थ होते हुए भी साधु के समान आचरण करता है अर्थात् श्रावक होते हुए भी श्रमण के समान क्रिया करता है वह श्रमणभूत कहलाता है। श्रमणभूतप्रतिमाप्रतिपन्न श्रमणोपासक बालों का उस्तरे से मुण्डन करवाता है अथवा हाथ से लुंचन करता है । इस प्रतिमा में चोटी नहीं रखी जाती। वेष, भाण्डोपकरण एवं आचरण श्रमण के ही समान होता है। श्रमणभूत श्रावक मुनिवेष में अनगारवत् आचार-धर्म का पालन करता हुआ जीवन यापन करता है। सम्बन्धियों व जाति के लोगों के साथ यत्किंचित् स्नेहबन्धन होने के कारण उन्हीं के यहाँ से अर्थात् परिचिव घरों से ही भिक्षा ग्रहण करता है। भिक्षा लेते समय वह इस बात का ध्यान रखता है कि दाता के यहाँ उसके पहुंचने के पूर्व जो वस्तु बन चुकी होती है वही ग्रहण करता है, अन्य नहीं। यदि उसके पहुंचने के पूर्व चावल पक चुके हों और दाल न पकी हो तो वह चावल ले लेगा, दाल नहीं। इसी प्रकार यदि दाल पक चुकी हो और चावल न पके हों तो वह दाल ले लेगा, चावल नहीं। पहुंचने के पूर्व दोनों चीजें बन चुकी हों तो दोनों ले सकता है और एक भी न बनी हो तो एक भी नहीं ले सकता। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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