Book Title: Jain Dharma Darshan Ek Samikshatmak Parichay
Author(s): Mohanlal Mehta
Publisher: Mutha Chhaganlal Memorial Foundation Bangalore
View full book text
________________
५६४
जैन धर्म-पन
प्रतिमाएं तपःसाधना की क्रमशः बढ़ती हुई अवस्थाएं हैं अतः उत्तर-उत्तर प्रतिमाओं में पूर्व-पूर्व प्रतिमाओं के गुण स्वतः समाविष्ट होते जाते हैं। जब श्रावक ग्यारहवीं अर्थात् अन्तिम प्रतिमा की आराधना करता है तब उसमें प्रारम्भ से लेकर अन्त तक की समस्त प्रतिमाओं के गुण रहते हैं। उसके बाद अपनी शक्ति के अनुसार चाहे वह मुनिधर्म की दीक्षा ग्रहण कर सकता है, चाहे उसी प्रतिमा को धारण किये रह सकता है।
श्वेताम्बर व दिगम्बर परम्परा-सम्मत उपासक-प्रतिमाओं के क्रम तथा नामों में नगण्य अन्तर है। श्वेताम्बर-परम्परा में एकादश उपासक-प्रतिमाओं के नाम क्रमानुसार इस प्रकार मिलते हैं : १. दर्शन, २. व्रत, ३. सामायिक, ४. पौषध, ५. नियम, ६. ब्रह्मचर्य, ७. सचित्तत्याग, ८. आरम्भत्याग, ६. प्रेष्यपरित्याग अथवा परिग्रहत्याग, १०. उद्दिष्ट मक्तत्याग, ११. श्रमणभूत । दिगम्बर-परम्परा में इन प्रतिमाओं के नाम इस क्रम से मिलते हैं : १. दर्शन, २. व्रत, ३. सामायिक, ४. पौषध, ५. सचित्तत्याग, ६. रात्रिभुक्तित्याग, ७. ब्रह्मचर्य, ८. आरम्भत्याग, ६. परिग्रहत्याग, १०. अनुमतित्याग, ११. उद्दिष्टत्याग। उद्दिष्ट त्याग के . दो भेद होते हैं जिनके लिए क्रमशः क्षुल्लक और ऐलक शब्दों का प्रयोग होता है। ये श्रावक की उत्कृष्ट अवस्याएं होती हैं। श्वेताम्बर व दिगम्बर-सम्मत प्रथम चार नामों में कोई अन्तर नहीं है। सचित्तत्याग का क्रम दिगम्बर-परम्परा में पाचवा है जबकि श्वेताम्बर-परम्परा में सातवां है। दिगम्बराभिमत रात्रिभुक्तित्याग श्वेताम्बराभिमत पांचवीं प्रतिमा नियम के अन्तर्गत समाविष्ट है। ब्रह्मचर्य का क्रम श्वेताम्बर-परम्परा में छठा है जबकि दिगम्बर-परम्परा में सातवाँ है। दिगम्बरसम्मत अनुमतित्याग श्वेताम्बरसम्मत
में पाचवां नहीं है। सचितसम्मत प्रथम चावस्याएं होती
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org: