Book Title: Jain Dharma Darshan Ek Samikshatmak Parichay
Author(s): Mohanlal Mehta
Publisher: Mutha Chhaganlal Memorial Foundation Bangalore
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आचारशास्त्र
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आध्यात्मिक साधना के लिए जिसने गृहवास का त्याग कर अनगारधर्म स्वीकार किया है उस भ्रमणशील पदयात्री निर्ग्रन्थ श्रमण भिक्षुक को न्यायोपार्जित निर्दोष वस्तुओं का निःस्वार्थभाव से श्रद्धापूर्वक दान देना उत्कृष्ट कोटि का अतिथिसंविभाग व्रत है। जिस प्रकार निर्ग्रन्थ अतिथि को दान देना श्रमणोपासक का कर्तव्य है उसी प्रकार निःस्वार्थ भाव से अन्य अतिथियों अथवा व्यक्तियों की समुचित मदद करना, दीन-दुःखियों की यथोचित सहायता करना भी श्रावक का धर्म है। इससे करुणावृत्ति का पोषण होता है जो अहिंसाधर्म के उपयुक्त विकास एवं प्रसार के लिए आवश्यक है। ___अतिथिसंविभाग वत के निम्नलिखित पांच अतिचार बताये गये हैं जो मुख्यतया आहार से सम्बन्धित हैं : १. सचित्तनिक्षेप, २. सचित्तपिधान, ३. कालातिक्रम, ४. परव्यपदेश, ५. मात्सर्य । न देने की भावना से अर्थात् कपटपूर्वक साधु को देने योग्य आहारादि को सचित्त--सचेतन वनस्पति आदि पर रखना सचित्त. निक्षेप है क्योंकि निर्ग्रन्थ श्रमण ऐसा आहारादि ग्रहण नहीं करते। इसी प्रकार आहारादि को सचित्त वस्तु से ढकना सचित्तपिधान है। अतिथि को कुछ न देना पड़े, इस भावना से अर्थात् कपटपूर्वक भिक्षा के उचित समय से पूर्व अथवा पश्चात् भिक्षुक से आहारादि ग्रहण करने की प्रार्थना करना कालातिक्रम अतिचार है। न देने की भावना से अपनी वस्तु को परायी कहना अथवा परायी वस्तु देकर अपनी वस्तु बचा लेना अथवा अपनी वस्तु स्वयं न देकर दूसरे से दिलवाना परव्यपदेश है। सहजभाव से अर्थात् श्रद्धापूर्वक दान न देते हुए दूसरे के दानगुण की ईर्ष्या से दान देना मात्सर्य अतिचार है।
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