Book Title: Jain Dharma Darshan Ek Samikshatmak Parichay
Author(s): Mohanlal Mehta
Publisher: Mutha Chhaganlal Memorial Foundation Bangalore
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की है। श्रावक को इन वस्तुओं की तथा इनके अतिरिक्त और भी जितनी वस्तुएं उसके काम में आती हों उन सबकी मर्यादानिश्चित कर लेनी चाहिए जिससे उसके जीवन में हमेशा शान्ति एवं संतोष विद्यमान रहे । मर्यादा निश्चित करने में विवेक का विशेष उपयोग करना चाहिए। जिनमें अधिक हिंसा और प्रपंच की सम्भावना हो उन पदार्थों का त्याग करना चाहिए तथा अल्पारम्भ व अल्पप्रपंचयुक्त वस्तुओं का मर्यादापूर्वक सेवन करना चाहिए । उपभोग- परिभोगसम्बन्धी वस्तुओं के २६ प्रकार ये हैं : १. शरीर आदि पोंछने का अंगोछा आदि, २. दाँत साफ करने का मंजन आदि, ३ फल, ४. मालिश के लिए तेल आदि, ५. उबटन के लिए लेप आदि, ६. स्नान के लिए जल, ७. पहनने के वस्त्र, ८. विलेपन के लिए चन्दन आदि, ६. फूल, १०. आभरण, ११. धूप-दीप, १२. पेय, १३. पक्वान्न, १४. ओदन, १५. सूप अर्थात् दाल, १६. घृत आदि विगय, १७. शाक, १८. माधुरक अर्थात् मेवा, १६. जेमन अर्थात् भोजन के पदार्थ, २०. पीने का पानी, २१ मुखवास, २२. वाहन, २३. उपानत् अर्थात् जूता, २४. शय्यासन, २५. सचित्त वस्तु, २६. खाने के अन्य पदार्थं ।
आचारशास्त्र
उपभोगपरिभोग-परिमाण व्रत के भी पांच प्रधान अतिचार हैं : १. सचित्ताहार, २. सचित्त- प्रतिबद्धाहार, ३ . अपक्वाहार, ४. दुष्पक्वाहार, ५. तुच्छौषधिभक्षण। ये अतिचार भोजनसम्बन्धी हैं । जो सचित्त वस्तु मर्यादा के अन्दर नहीं है उसका भूल से आहार करने पर सचित्ताहार दोष लगता है । व्यक्त सचित्त वस्तु से संसक्त अर्थात् लगी हुई अचित्त वस्तु का आहार करने पर सचित्त- प्रतिबद्धाहार दोष लगता है - जैसे वृक्ष से लगा हुआ गोंद, गुठलीसहित आम, पिण्डखजूर आदि खाना ।
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