Book Title: Jain Dharma Darshan Ek Samikshatmak Parichay
Author(s): Mohanlal Mehta
Publisher: Mutha Chhaganlal Memorial Foundation Bangalore

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Page 565
________________ -५५० जैन धर्म-दर्शन होता हो । इस प्रकार का शोषण प्रत्यक्षत: हिंसा भले ही न हो किन्तु परोक्षत: हिंसा ही है। इस प्रकार की हिंसा कभी-कभी साधारण स्थूल हिंसा से भी भारी हो जाती है। कौन-सा व्यवसाय श्रावक के करने योग्य है और कौन-सा करने योग्य नहीं है, इसका निर्णय मुख्यतः इन दो दृष्टियों से ही करना चाहिए । ३. अनर्थदण्ड- विरमण - अपने अथवा अपने कुटुम्ब के जीवन निर्वाह के निमित्त होने वाले अनिवार्य सावद्य अर्थात् हिंसापूर्ण व्यापार-व्यवसाय के अतिरिक्त समस्त पापपूर्ण प्रवृत्तियों से निवृत्त होना अनर्थदण्ड विरमण व्रत है । इस गुणव्रत से प्रधानतया अहिंसा एवं अपरिग्रह का पोषण होता है । अनर्थदण्ड - विरमण व्रतधारी श्रावक निरर्थक किसी की हिंसा नहीं करता और न निरर्थक वस्तु का संग्रह ही करता है क्योंकि इस प्रकार के संग्रह से हिंसा को प्रोत्साहन मिलता है । अनर्थदण्ड अर्थात् निरर्थक पापपूर्ण प्रवृत्तियाँ चार प्रकार की बताई गई हैं : अपध्यानाचरण, प्रमादाचरण, हिंसाप्रदान और पापकर्मोपदेश । अपध्यान अर्थात् कुध्यान | ध्यान के चार प्रकार हैं : आर्तध्यान, रौद्रध्यान, धर्मध्यान व शुक्लध्यान । इनमें से प्रथम दो ध्यान अशुभ ध्यान - कुध्यान हैं तथा बाद के दो ध्यान शुभ ध्यान - सुध्यान हैं । आर्तध्यान चार प्रकार का है : इष्टवियोग, अनिष्टसंयोग, रोगचिन्ता और निदान । प्रिय वस्तु अथवा व्यक्ति का वियोग होने पर उसके संयोग के लिए शोकाकुल रहना इष्टवियोग-आर्तध्यान है । अप्रिय वस्तु अथवा व्यक्ति का संयोग होने पर उसके वियोग के लिए व्याकुल रहना अनिष्टसंयोग - आर्तध्यान है । शारीरिक अथवा मानसिक पीड़ा दूर करने की व्याकुलता को रोगचिन्ता - आर्तध्यान कहते हैं । अप्राप्त विषयों को प्राप्त करने it कामना से तीव्र संकल्प करना निदान - आर्तध्यान है । रौद्र Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org.

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