Book Title: Jain Dharma Darshan Ek Samikshatmak Parichay
Author(s): Mohanlal Mehta
Publisher: Mutha Chhaganlal Memorial Foundation Bangalore

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Page 550
________________ आचारशास्त्र १३५ का आंशिक रूप से पालन करता है। श्रमण मन, वचन अथवा काया से किसी भी प्राणी की-चाहे त्रस हो अथवा स्थावर-न तो हिंसा करता है, न किसी से करवाता है और न करने वाले का समर्थन ही करता है। इस प्रकार श्रमण हिंपा का तीन योग (मन, वचन व काया ) और तीन करण ( करना, करवाना व अनुमोदन करना) पूर्वक त्याग करता है। उसका यह त्याग सर्वविरति कहलाता है। श्रावक इस प्रकार हिंसा का त्याग नहीं करता। वह केवल त्रस (द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय एवं पंचेन्द्रिय ) प्राणियों की हिंसा से विरत होता है। उसकी यह विरति सामान्यतया तीन योग व तीन करणपूर्वक नहीं अपितु तीन योग व दो करणपूर्वक होती है। वह निरपराध प्राणियों को मन, वचन अथवा काया से न स्वयं मारता है और न दूसरों से मरवाता है। श्रावक ऐसी कोई भी प्रवृत्ति करने के लिए स्वतन्त्र होता है जिसमें स्थूल हिमा की संभावना न हो । इस प्रकार की प्रवृत्ति वह दूसरों से भी करवा सकता है। सावधानीपूर्वक व्रत का पालन करते हुए भी कभी कभी प्रमादवश अथवा अज्ञानवश दोष लगने की संभावना रहती है। इस प्रकार के दोषों को अतिचार कहा जाता है । स्थूल अहिंसा अथवा स्थूल प्राणातिपात-विरमण के पाँच मुख्य अतिचार हैं : १. बन्ध, २. वध, ३. छविच्छेद, ४. अतिभार, ५. अन्नपाननिरोध । ये अथवा इसी प्रकार के अन्य अतिचार श्रावक के जानने योग्य हैं, आचरण करने योग्य नहीं। बन्ध का अर्थ है किसी त्रस प्राणी को कठिन बंधन से बाँधना अथवा उसे अपने इष्ट स्थान पर जाने से रोकना । अपने अधीनस्थ व्यक्तियों को निश्चित समय से अधिक काल तक रोकना, उनसे निर्दिष्ट । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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