Book Title: Jain Dharma Darshan Ek Samikshatmak Parichay
Author(s): Mohanlal Mehta
Publisher: Mutha Chhaganlal Memorial Foundation Bangalore
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बैन धर्म-दर्शन
बनी रहती है जो अपने आप के लिए तथा अपनी पत्नी के लिए दुःखदायी होती है। उपर्युक्त अतिचारों से सदाचार दूषित होता है। अतः श्रावक को इनसे बचना चाहिए। श्राषिका के लिए स्वपति-सन्तोषरूप स्थल मैथुन-विरमण व्रत का तथा तद्विषयक समस्त अतिचारों का आवश्यक परिवर्तन के साथ यथोचित शब्दों में संयोजन कर लेना चाहिए।
५. इच्छा-परिमाण-मनुष्य की इच्छा आकाश के समान अनन्त है। इसका अर्थ यह है कि यदि इच्छा पर नियन्त्रण न किया जाय तो वह कदापि तृप्त नहीं हो सकती । इच्छा-तृप्ति का श्रेष्ठ उपाय है इच्छा-नियन्त्रण । गृहस्थावस्था में रहते हुए इच्छाओं का सर्वथा त्याग संभव नहीं। हाँ, इच्छाओं की मर्यादा अवश्य बाँधी जा सकती है । इसी इच्छा-मर्यादा अथवा इच्छानियन्त्रण का नाम है इच्छा-परिमाण । यह श्रावक का पांचवां अणुव्रत है। जब इच्छा परिमित हो जाती है तब तमूलक ममत्व तथा तज्जन्य संग्रह अथवा परिग्रह भी परिमित हो जाता है। परिणामतः श्रावक जो कुछ भी उपार्जन अथवा संग्रह करता है वह केवल आवश्यकता की पूर्ति के लिए ही होता है। उससे वह संतोषपूर्वक अपनी तथा अपने आश्रितों की परिमित इच्छा की पूर्ति करता है। श्रावक की इस प्रकार की परिग्रहपरिमिति का ही दूसरा नाम स्थूल परिग्रह-विरमण है।
अन्य व्रतों की भांति इच्छा-परिमाण अर्थात् परिग्रह-परिमाण व्रत के भी पाँच अतिचार बतलाये गये हैं जो विविध पदार्थों की मर्यादा के उल्लंघन से सम्बन्धित हैं। ये अतिचार इस प्रकार हैं : १ क्षेत्र वास्तु-परिमाण-अतिक्रमण, २. हिरण्यसुवर्ण-परिमाण-अतिक्रमण, ३. धनवान्य-परिमाण-अतिक्रमण,
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