Book Title: Jain Dharma Darshan Ek Samikshatmak Parichay
Author(s): Mohanlal Mehta
Publisher: Mutha Chhaganlal Memorial Foundation Bangalore
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जैन धर्म-दर्शन
कर ला की उत्पत्ति कायतया चातुमाम तक
में चातुर्मास लगने के बाद पचास दिन व्यतीत होने पर वर्षावास किया। इस प्रकरण में यह भी उल्लेख है कि इस समय से पूर्व भी वर्षावास कल्प्य है किन्तु इस समय का उल्लंघन करना कल्प्य नहीं । इस प्रकार जैन आचारशास्त्र के अनुसार मुनियों का वर्षावास चातुर्मास लगने से लेकर पचास दिन बीतने तक कभी भी प्रारम्भ हो सकता है अर्थात् आषाढ़ शुक्ला चतुर्दशी से लेकर भाद्रपद शुक्ला पंचमी तक किसी भी दिन शुरू हो सकता है। सामान्यतया चातुर्मास प्रारम्भ होते ही जीवजन्तुओं की उत्पत्ति को ध्यान में रखते हुए मुनि को वर्षावास कर लेना चाहिए । परिस्थितिविशेष की दृष्टि से उसे पचास दिन का समय और दिया गया है । इस समय तक उसे वर्षावास अवश्य कर लेना चाहिए ।
वर्षावास में स्थित निर्ग्रन्थ-निर्ग्रन्थियों को भी चारों ओर सवा योजन अर्थात् पाँच कोस तक की अवग्रह-मर्यादा-गमतागमन की क्षेत्र-सीमा रखना कल्प्य है ।
हृष्टपुष्ट, आरोग्ययुक्त एवं बलवान् निर्ग्रन्थ-निर्ग्रन्थियों को दूध, दही, मक्खन, घी, तेल आदि रसविकृतियाँ बार-बार नहीं लेनी चाहिए। __ नित्यभोजी भिक्ष को गोचरकाल में आहार-पानी के लिए गृहस्थ के घर की ओर एक बार जाना कल्प्य है। आचार्य आदि की सेवा के निमित्त अधिक बार भी जाया जा सकता है। चतुर्थभक्त अर्थात् उपवास करने वाले भिक्षु को उपवास के बाद प्रातःकाल गोचरी के लिए निकल कर हो सके तो उस समय मिलने वाले आहार-पानी से ही उस दिन काम चला लेना चाहिए। वैसा शक्य न होने पर गोचरकाल में आहार
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