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जैन धर्म-दर्शन
तीन-तीन हाथ की दो संघाटियों में से एक भिक्षाचर्या के समय धारण करने के लिए तथा दूसरी शौच जाने के समय पहनने के लिए व चार हाथ की संघाटी समवसरण (धर्मसभा) में सारा शरीर ढंकने के लिए है, ऐसा टीकाकारों का व्याख्यान है। यहाँ भिक्षुणियों के लिए जिन चार वस्त्रों के धारण का विधान किया गया है उनका 'संघाटी' (साड़ी अथवा चादर) शब्द से निर्देश किया गया है। टीकाकारों ने भी इनका उपयोग शरीर पर लपेटने अर्थात् ओढ़ने के रूप में ही बताया है। इससे प्रतीत होता है कि इन चारों वस्त्रों का उपयोग विभिन्न अवसरों पर ओढ़ने के रूप में करना अभीष्ट है, पहनने के रूप में नहीं । अतः इन्हें साध्वियों के उत्तरीय वस्त्र अर्थात् साड़ी अथबा चादर के रूप में समझना चाहिए, अन्तरीय वस्त्र अर्थात् लहंगा या घोती के रूप में नहीं। दूसरी बात यह है कि दो हाथ और यहाँ तक कि चार हाथ लम्बा वस्त्र ऊपर से नीचे तक पूरे शरीर पर धारण भी कैसे किया जा सकता है। अतएव भिक्षुणियों के लिए ऊपर जिन चार वस्त्रों के ग्रहण एवं धारण का विधान किया गया है उनमें अन्तरीय वस्त्र का समावेश नहीं होता, ऐसा समझना चाहिए। भिक्षुओं के विषय में ऐसा कुछ नहीं है। वे एक वस्त्र का उपयोग अन्तरीय के रूप में कर सकते हैं, दो का अन्तरीय व उत्तरीय के रूप में कर सकते हैं, आदि । यहां तक कि वे अचेल अर्थात् निर्वस्त्र भी रह सकते हैं। सामाचारी :
समाचारी अथवा सामाचारी का अर्थ है सम्यक्चर्या । श्रमण की दिनचर्या कैसी होनी चाहिए? इस प्रश्न का जैन आचारशास्त्र में व्यवस्थित उत्तर दिया गया है। यह उत्तर दो रूपों है : सामान्य दिनचर्या व पर्युषणाकल्प । उत्तराध्ययन आदि
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