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जैन धर्म-दर्शन
कष्टों को तो सहन कर सकता हूँ किन्तु लज्जानिवारण करना मेरे लिए शक्य नहीं, तो उसे कटिबन्धन धारण कर लेना चाहिए । अचेलक अर्थात् नग्न मुनि को सचेलक अर्थात् वस्त्रधारी मुनि के प्रति हीनभाव नहीं रखना चाहिए। इसी प्रकार सचेलक मुनि को अचेलक मुनि के प्रति तुच्छता की भावना नहीं रखनी चाहिए । अचेलक व सचेलक मुनियों को एक-दूसरे की निन्दा नहीं करनी चाहिए । निन्दक मुनि को निर्ग्रन्थधर्म का अनधिकारी कहा गया है । वह संयम का सम्यक्तया पालन नहीं कर सकता - आत्मसाधना की निर्दोष आराधना नहीं कर सकता । अचेलक व सचेलक मुनियों को अपनी-अपनी आचारमर्यादा में रहकर निर्ग्रन्थ-धर्म का पालन करना चाहिए ।
बृहत्कल्प के छठे उद्देश के अन्त में छः प्रकार की कल्पस्थिति ( आचारमर्यादा) बतलाई गई है : १. सामायिकसंयतकल्पस्थिति, २. छेदोपस्थापनीयसंयत-कल्पस्थिति, ३. निर्विशमान - कल्पस्थिति, ४. निर्विष्टकायिक- कल्पस्थिति, ५. जिनकल्पस्थिति, ६ . स्थविर - कल्पस्थिति | सर्वसावद्ययोगविरतिरूप सामायिक स्वीकार करने वाला सामायिकसंयत कहलाता है । पूर्व पर्याय अर्थात् पहले की साधु अवस्था का छेद अर्थात् नाश अथवा कमी करके संयम की पुनः स्थापना करने योग्य श्रमण छेदोपस्थापनीयसंयत कहलाता है । इस कल्पस्थिति में मुनिजीवन का अध्याय पुनः प्रारंभ होता है अथवा पुनः आगे बढ़ता है । परिहारविशुद्धि कल्प (तपविशेष) का सेवन करने वाला श्रमण निर्विशमान कहा जाता है। जिसने परिहारविशुद्धिक तप का सेवन कर लिया हो उसे निविष्टकायिक कहते हैं । गच्छ से निर्गत अर्थात् श्रमणसंघ का त्याग कर एकाकी संयम की साधना करने वाले साधुविशेष जिन अर्थात्
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