Book Title: Jain Dharma Darshan Ek Samikshatmak Parichay
Author(s): Mohanlal Mehta
Publisher: Mutha Chhaganlal Memorial Foundation Bangalore

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Page 534
________________ बाचारशास्त्र किन्तु निर्दोष पदार्थों में से भी अमुक का त्याग कर अमुक का सेवन करना अनासक्त भाव के सिंचन के लिए आवश्यक है। प्रत्याख्यान आवश्यक इसी उद्देश्य की पूर्ति करता है। इसके द्वारा मुनि अमुक समय तक के लिए अथवा जीवन भर के लिए अमुक प्रकार के अथवा सब प्रकार के पदार्थों के सेवन का त्याग करता है। इससे तृष्णा, लोभ, अशान्ति आदि मनोविकारों का नियन्त्रण होता है। तन, मन व वचन अशुभ प्रवृत्तियों से रुककर शुभ प्रवृत्तियों में प्रवृत्त होते हैं। भगवतीसूत्र के सातवें शतक के दूसरे उद्देशक में प्रत्याख्यान के विविध भेदों का वर्णन है। इनमें अनागत आदि दस भेद प्रत्याख्यान का स्वरूप समझने के लिए विशेष उपयोगी हैं। इन दस प्रकार के प्रत्याख्यानों के नाम ये हैं : १. अनागत, २. अतिक्रान्त, ३. कोटियुक्त, ४. नियन्त्रित, ५. सागार, ६. अनागार, ७. कृतपरिमाण, ८. निरवशेष, ६. सांकेतिक, १०. कालिक । पर्व आदि विशिष्ट अवसरों पर किया जाने वाला प्रत्याख्यान अर्थात् त्यागविशेषतपविशेष कारणवशात् पर्व आदि से पहले ही कर लेना अनागत प्रत्याख्यान है। पर्व आदि के व्यतीत हो जाने पर तपविशेष की आराधना करना अतिक्रान्त प्रत्याख्यान है। एक तप के समाप्त होते ही दूसरा तप प्रारम्भ कर देना कोटियुक्त प्रत्याख्यान है। रोग आदि की बाधा आने पर भी पूर्वसंकल्पित त्याग निश्चित समय पर करना एवं उसे दृढ़तापूर्वक पूर्ण करना नियन्त्रित प्रत्याख्यान है। त्याग करते समय आगार अर्थात् अपवादविशेष की छूट रख लेना सागार प्रत्याख्यान है। आगार रखे बिना त्याग करना अनागार प्रत्याख्यान है। भोज्य पदार्थ आदि की संख्या अथवा मात्रा का निर्धारण करना कृतपरिमाण प्रत्याख्यान है। अशनादि चतुर्विध अर्थात् सम्पूर्ण Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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