Book Title: Jain Dharma Darshan Ek Samikshatmak Parichay
Author(s): Mohanlal Mehta
Publisher: Mutha Chhaganlal Memorial Foundation Bangalore
View full book text
________________
११६
जैन धर्म-दर्शन
धर्म के परम पुरस्कर्ता वीतराग तीर्थंकरों के उत्कीर्तन से आध्यात्मिक बल प्राप्त होता है । उनकी स्तुति से साधना का मार्ग प्रशस्त होता है। उनके गुण-कीर्तन से संयम में स्थिरता आती है। उनकी भक्ति से प्रशस्त भावों की वृद्धि होती है। तीथंकरों की स्तुति करने से प्रसुप्त आन्तरिक चेतना जाग्रत होती है । केवल स्तुति से ही मुक्ति प्राप्त हो जाती है, ऐसा नहीं मानना चाहिए । स्तुति तो सोई हुई आत्मचेतना को जगाने का केवल एक साधन है। तीयंकरों की स्तुतिमात्र से ही मोक्ष की प्राप्ति नहीं हो जाती । मुक्ति के लिए भक्ति एवं स्तुति के साथ-साथ संयम एवं साधना भी आवश्यक है।
जिस प्रकार मुनि के लिए तीर्थकर-स्तव आवश्यक है उसी प्रकार गुरु-स्तव भी आवश्यक है। गुरु-स्तव को वन्दना अथवा वन्दन कहा जाता है। तीर्थङ्कर के बाद यदि कोई वन्दन करने योग्य है तो वह गुरु है क्योंकि गरु अहिंसा आदि की उत्कृष्ट आराधना करने के कारण शिष्य के लिए साक्षात् आदर्श का कार्य करता है। उससे उसे प्रत्यक्ष प्रेरणा प्राप्त होती है। उसके प्रति सम्मान होने पर उसके गुणों के प्रति सम्मान होता है । तीर्थङ्कर के बाद सद्धर्म का उपदेश देनेवाला गुरु ही होता है । गुरु ज्ञान व चारित्र दोनों में बड़ा होता है अतः वन्दनयोग्य है। गुरुदेव को वन्दन करने का अर्थ होता है गुरुदेव का उत्कीर्तन व अभिवादन करना । वाणी से उत्कीर्तन अर्थात् स्तवन किया जाता है तथा शरीर से अभिवादन अर्थात् प्रणाम । गुरु को वन्दन इसलिए किया जाता है कि वह गुणों में गुम अर्थात् भारी होता है । गुणहीन व्यक्ति अवन्दनीय होता है । जो गुणहीन अर्थात् अवंद्य को वन्दन करता है उसके कर्मो की निर्जरा नहीं होती, उसके संयम का पोषण नहीं होता। इस प्रकार के
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org .