Book Title: Jain Dharma Darshan Ek Samikshatmak Parichay
Author(s): Mohanlal Mehta
Publisher: Mutha Chhaganlal Memorial Foundation Bangalore
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जैन धर्म-दर्शन
वचन से इस प्रकार की प्रवृत्ति करना भी पाप है। मन, वचन एवं काय से किसी को संताप न पहुंचाना सच्ची अहिंसा हैपूर्ण अहिंसा है। वनस्पति आदि एकेन्द्रिय जीवों से लेकर मानव तक के प्रति अहिंसक आचरण की भावना जैन परम्परा की प्रमुख विशेषता है । इसे अहिंसक आचार का चरम उत्कर्ष कह सकते हैं । आचार का यह अहिंसक विकास जैन संस्कृति की अमूल्य निधि है। ___अहिंसा को केन्द्रबिन्दु मानकर अमृषावाद, अस्तेय, अमैथुन एवं अपरिग्रह का विकास हुआ। आत्मिक विकास में बाधक कर्मबन्ध को रोकने तथा बद्धकर्म को नष्ट करने के लिए अहिंसा तथा तदाधारित अमृषावाद आदि की अनिवार्यता स्वीकार की गई। इसमें व्यक्ति एवं समाज दोनों का हित निहित है। वैयक्तिक उत्थान एवं सामाजिक उत्कर्ष के लिए असत्य का त्याग, अनधिकृत वस्तु का अग्रहण तथा संयम का परिपालन आवश्यक है। इनके अभाव में अहिंसा का विकास नहीं हो पाता । परिणामतः आत्मविकास में बहुत बड़ी बाधा उपस्थित होती है। इन सबके साथ अपरिग्रह का व्रत अत्यावश्यक है। परिग्रह के साथ आत्मविकास की घोर शत्रुता है। जहाँ परिग्रह रहता है वहाँ आत्मविकास का मार्ग अवरुद्ध हो जाता है । इतना ही नहीं, परिग्रह आत्मपतन का बहुत बड़ा कारण बनता है। परिग्रह का अर्थ है पाप का संग्रह । यह आसक्ति से बढ़ता है एवं आसक्ति को बढ़ाता भी है। इसी का नाम मूर्छा है। ज्यों-ज्यों परिग्रह बढ़ता है त्यों-त्यों मूर्छागृद्धि-आसक्ति बढ़ती जाती है। जितनी अधिक आसक्ति बढ़ती है उतनी ही अधिक हिंसा बढ़ती है । यही हिंसा मानव-समाज में वैषम्य उत्पन्न करती है । इसी से आत्मपतन भी होता है ।
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