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की गिरी हुई, भूली हुई, रखी हुई अथवा अज्ञात स्वामी की वस्तु को छूना भी उसके लिए निषिद्ध है। आवश्यकता होने पर वह स्वामी की अनुमति से अर्थात् उपयुक्त व्यक्ति के देने पर ही किसी वस्तु को ग्रहण करता है अथवा उसका उपयोग करता है । जिस प्रकार वह स्वयं अदत्तादान का सेवन नहीं करता उसी प्रकार किसी से करवाता भी नहीं और करनेकराने वालों का समर्थन भी नहीं करता ।
अस्तेयव्रत की दृढता एवं सुरक्षा के लिए पाँच भावनाएं इस प्रकार बतलाई गई हैं : १. सोच-विचार कर वस्तु की याचना करना, २ . आचार्य आदि की अनुमति से भोजन करना, ३. परिमित पदार्थ स्वीकार करना, ४ पुनः पुनः पदार्थों की मर्यादा करना, ५ . साधर्मिक (साथी श्रमण ) से परिमित वस्तुओं की याचना करना । "
आचारशास्त्र
श्रमण के लिए मैथुन का पूर्ण त्याग अनिवार्य है । उसके मैथुनत्याग को सर्वमैथुन - विरमण कहा जाता है। उसके लिए मन, वचन एवं काय से मैथुन का सेवन करने, करवाने तथा अनुमोदन करने का निषेध है। इसे नवकोटि ब्रह्मचर्य अथवा नवकोटि- शील कहते हैं । मैथुन को अधर्म का मूल तथा महादोषों का स्थान कहा गया है। इससे अनेक प्रकार के पाप उत्पन्न होते हैं, हिंसादि दोषों और कलह - संघर्ष - विग्रह का जन्म होता है । यह सब समझकर निर्ग्रन्थ मुनि मैथुन का सर्वथा त्याग करते हैं। जैसे मुर्गी के बच्चे को बिल्ली से हमेशा
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१. आचारांग, २.३.
२ दशकालिक ६.१६.
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